SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व पराक्रम निष्कांक्ष संक्लेश नहीं पाता। भावार्थ - आकांक्षा से मुक्त हो कर, उवहिमंतरेण उपधि के बिना, ण संकिलिस्सइ Jain Education International उत्तर रजोहरण और मुखवस्त्रिका के अतिरिक्त वस्त्र - पात्रादि उपधि का प्रत्याख्यान - त्याग करने से स्वाध्याय आदि में विघ्न बाधा उपस्थित नहीं होती । निरुपधिक-उपधि रहित जीव को निष्कांक्ष-वस्त्रादि की अभिलाषा नहीं रहती और उपधि न रहने से शारीरिक और मानसिक कोई क्लेश नहीं होता । विवेचन - संयम का निर्वाह जिन उपकरणों से हो, उन्हें उपधि कहते हैं । उपधि से यहां प्रसंगवश रजोहरण और मुखवस्त्रिका को छोड़ कर अन्य उपकरणों का ग्रहण अभीष्ट है। जब मन की धृति और परीषह - सहनशक्ति बढ़ जाए तब उपधि के त्याग करने से परिमंथ अर्थात् स्वाध्याय, ध्यान आदि आवश्यक क्रियाओं में पड़ने वाला विघ्न दूर हो जाता है । उपधि के त्याग करने वाले को उपधि के टूटने-फूटने, चोरी हो जाने अथवा अभाव आदि से होने वाले मानसिक संक्लेश तथा ईर्ष्या, क्लेश आदि विकार उत्पन्न नहीं होते। मनोज्ञ उपधि पाने की आकांक्षा भी उसे नहीं रहती । - - - ३५ आहार- प्रत्याख्यान आहार - पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? भावार्थ प्रश्न हे भगवन्! आहार का त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है? - आहार - पच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिंदइ, जीवियासंसप्पओगं - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र आहार- प्रत्याख्यान · - वोच्छिंदित्ता जीवे आहारमंतरेणं ण संकिलिस्सइ ॥ ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ आहारपच्चक्खाणं आहार का प्रत्याख्यान करने से, जीवियासंसप्पओगं जीवित रहने की आशंसा (लालसा) के प्रयत्न को, वोच्छिंदइ विच्छिन्न कर देता है, आहारमंतरेणं संक्लेश नहीं आहार के अभाव में, ण संकिलिस्सइ करता । - - १६७ 000000 - - आहार का प्रत्याख्यान भावार्थ उत्तर है, जीने की लालसा छूट जाने से जीव आहार के विवेचन आहार त्याग का परिणाम त्याग करने से जीने की लालसा छूट जाती बिना संक्लेश को प्राप्त नहीं होता । आहार प्रत्याख्यान यहाँ व्यापक अर्थ में है । आहार प्रत्याख्यान के दो पहलू हैं थोड़े समय के लिए और जीवन भर के लिए। अथवा दोष - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy