SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन २. जो साधु अपने लाभ से संतुष्ट रहता है और दूसरों के लाभ में से आशा इच्छा याचना और अभिलाषा नहीं करता। उस संतोषी साधु का मन संयम में स्थिर रहता है और वह धर्म भ्रष्ट नहीं होता, यह दूसरी सुखशय्या है। ३. जो साधु तिर्यंच, मनुष्य और देवता सम्बन्धी काम भोगों की आशा यावत् अभिलाषा नहीं करता, उसका मन संयम में स्थिर रहता है अतएव वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता, यह तीसरी सुखशय्या है। ४. कोई साधु दीक्षा लेकर यह सोचता है कि जब हृष्ट पुष्ट, नीरोग, बलवान् शरीर वाले तीर्थंकर भगवान् आशंसा दोष रहित अतएव उदार कल्याणकारी दीर्घ कालीन महा प्रभावशाली, कर्मों को क्षय करने वाले तप को संयम पूर्वक आदर भाव से अंगीकार करते हैं। तो क्या मुझे केश लोच, ब्रह्मचर्य पालन आदि में होने वाली आभ्युपगमिकी और ज्वर अतिसार आदि रोगों से होने वाली औपक्रमिकी वेदना को शांति पूर्वक, दैन्यभाव न दर्शाते हुए, बिना किसी पर कोप किए सम्यक् प्रकार से समभाव पूर्वक न सहन कर मैं एकान्त पाप कर्म के सिवाय और क्या उपार्जन करता हूँ? यदि मैं इसे सम्यक् प्रकार सहन कर लूँ, तो क्या मुझे एकान्त निर्जरा न होगी ? इस प्रकार विचार कर ब्रह्मचर्य व्रत के दूषण रूप मर्दन आदि की आशा, इच्छा का त्याग करना चाहिए। एवं उनके अभाव से प्राप्त वेदना तथा अन्य प्रकार की वेदना को सम्यक् प्रकार से समभाव पूर्वक सहना चाहिए। यह चौथी सुख शय्या है। यह संभोग प्रत्याख्यान, गच्छ निर्गत जिनकल्पी आदि मुनियों के ही होता है । १६६ ३४. उपधि प्रत्याख्यान उवहि-पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! उपधिप्रत्याख्यान - रजोहरण और मुखवस्त्रिका के अतिरिक्त वस्त्र - पात्रादि उपधि का प्रत्याख्यान त्याग करने से जीव को क्या लाभ होता है? उवहि-पच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ, णिरुवहिए णं जीवे णिक्कंखी उवहिमंतरेण यण संकिलिस्सइ ॥ ३४ ॥ कठिन शब्दार्थ - उवहिपच्चक्खाणेणं - उपधि के प्रत्याख्यान से, अपलिमंथं अपरिमन्थ ( स्वाध्याय ध्यान में निर्विघ्नता), णिरुवहिए - निरुपधिक उपधि रहित, णिक्कंखी Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy