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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - संभोग प्रत्याख्यान १६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 णो आसाएइ - उपयोग नहीं करता, णो तक्केइ - नहीं ताकता, णो पीहेइ - स्पृहा नहीं करता, णो पत्थेइ- प्रार्थना नहीं करता, णो अभिलसइ - अभिलाषा नहीं करता, अणासाएमाणेआस्वादन न करता हुआ, अतक्केमाणे - कल्पना न करता हुआ, अपीहेमाणे - स्पृहा न करता हुआ, अपत्थेमाणे - प्रार्थना न करता हुआ, अणभिलसमाणे - अभिलाषा न करता हुआ, दुच्चं - दूसरी, सुहसेज्जं - सुखशय्या को, उवसंपज्जित्ताणं - अंगीकार करके।
भावार्थ - उत्तर - संभोग का त्याग करने से जीव आलंबनों का क्षय कर देता है (परावलंबीपन छूट कर स्वावलम्बी बन जाता है) और निरालम्बन अर्थात् स्वावलंबी जीव के योग केवल शुभ प्रयोजन के लिए ही प्रवृत्त होते हैं। वह अपने ही लाभ से संतुष्ट रहता है। दूसरे के लाभ का उपयोग नहीं करता, कल्पना नहीं करता, दूसरों का लाया हुआ आहार अच्छा है ऐसी स्पृहा - इच्छा नहीं करता। यह अच्छा आहार मुझे दो, ऐसी प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता। दूसरे के लाभ का उपभोग न करता हुआ, कल्पना न करता हुआ, इच्छा न करता हुआ, प्रार्थना न करता हुआ, अभिलाषा न करता हुआ जीव दूसरी सुखशय्या को अंगीकार कर के विचरता है। . विवेचन - समान समाचारी वाले साधुओं का एक जगह बैठकर आहार करना तथा परस्पर आहार करना तथा परस्पर आहारादि का लेना देना एवं वस्त्र पात्र एवं अन्य उपधि का भी परस्पर लेना देना, परस्पर वंदन करना आदि को संभोग कहते हैं। इसके बारह भेद हैं जिसका विस्तृत वर्णन समवायाङ्ग सूत्र के १२ वें समवाय में दिया गया है जिसका हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के चौथे भाग में दिया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए।
- इस ३३ वें बोल में दूसरी सुख शय्या का वर्णन किया है। शय्या के दो भेद हैं - दुःख शय्या और सुख शय्या। इन दोनों के चार-चार भेद हैं जिनका वर्णन ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे के तीसरे उद्देशक में दिया गया है। जिसका हिन्दी अनुवाद जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग १ में दिया गया है। प्रकरण संगत होने से यहाँ सुख शय्या के चार भेदों का वर्णन किया जाता है।
१. साधु-साध्वी वीतराग तीर्थंकर भगवान् के प्रवचन पर शंका-कांक्षा विचिकित्सा न . करता हुआ तथा चित्त को डांवाडोल और कलुषित न करता हुआ निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा प्रतीति और रुचि रखता है तथा मन को संयम में स्थिर रखता है, वह धर्म से भ्रष्ट नहीं होता अपितु धर्म पर और भी अधिक दृढ़ होता है। यह पहली सुखशय्या है।
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