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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन विणिवट्टणयाए णं पावकम्माणं अकरणयाए अब्भुट्ठेइ, पुव्वबद्धाण य णिज्जरणयाए पावं णियत्तेइ, तओ पच्छा चाउरंतं संसार - कंतारं वीड़वयइ ॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ विविट्टयाए - विनिवर्तना से, पावकम्माणं पाप कर्मों को, अकरणयाए · न करने के लिये, अब्भुट्ठेइ - उद्यत होता है, पुव्वबद्धाण - पहले बंधे हुए, णिज्जरणयाए - निर्जरा से, पावं - पाप से, णियत्तेइ - निवृत्ति पा लेता है, चाउरंतसंसार १६४ - कंतारं- चतुर्गतिक संसार रूपी महारण्य को । भावार्थ - उत्तर है प्रत्युत धर्मकार्य करने के लिए उद्यत होता है और पहले बन्धे हुए पापकर्मों की निर्जरा कर के पाप से निवृत्त हो जाता है। उसके पश्चात् चतुर्गति वाले संसार रूपी कान्तार - अटवी को पार कर जाता है। - Jain Education International - विनिवर्तना करने वाला जीव पाप कर्म नहीं करने के लिये उद्यत होता विवेचन - विनिवर्तना का अर्थ है आत्मा ( मन और इन्द्रियों) की विषय वासना से निवृत्ति । विषय वासना से पराङ्मुख होने वाला जीव पाप कर्म बंध के हेतुओं से विनिवृत्त हो जाता है। ये कर्म नहीं बंधते और पुराने कर्म क्षीण होने से वह शीघ्र संसार सागर को पार कर लेता है। - ३३. संभोग प्रत्याख्यान संभोग - पच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणय ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! संभोग का प्रत्याख्यान करने से जीव को क्या लाभ होता है ? संभोग - पच्चक्खाणं आलंबणाई खवेइ, णिरालंबणस्स य आययट्ठिया जोगा भवंति, सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परस्स लाभं णो आसाएइ णो तक्केइ णो पीइ णो पत्थे णो अभिलसइ, परस्स लाभं अणासाएमाणे अतक्केमाणे अपीहेमाणे अपत्थेमाणे अणभिलसेमाणे दुच्चं सुहसेज्जं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥३३॥ कठिन शब्दार्थ - संभोगपच्चक्खाणेणं - सम्भोग के प्रत्याख्यान से, आलंबणाई आलम्बनों को, णिरालंबणस्स - निरावलम्बन के, आययट्ठिया - आयतार्थ - मोक्षार्थ, सरणं लाभेणं - स्वयं के लाभ से, संतुस्सइ - संतुष्ट रहता है, परस्सलाभं - दूसरे के लाभ को. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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