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________________ १६० उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 000000000000000000000000000000000000000000000000000 २६. संयम संजमेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! संयम धारण करने से जीव को क्या लाभ होता है? . संजमेणं अणण्हत्तं जणयइ॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - संजमेणं - संयम धारण करने से, अणण्हत्तं - अनास्रवत्व-आते हुए . कर्मों का निरोध। भावार्थ - उत्तर - संयम धारण करने से आस्रवों का निरोध होता है। विवेचन - यद्यपि शास्त्रकारों ने संयम के १७ भेद किये हैं। तथापि उनमें से अंतिम के - जो मनःसंयम, वाक्-संयम और काय संयम, ये ३ भेद हैं उनका सम्यक्तया पालन किया जाने पर ही जीव अनास्रवी हो सकता है। २७त्प तवेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! तपस्या करने से जीव को क्या लाभ होता है? तवेणं वोदाणं जणयइ॥२७॥ कठिन शब्दार्थ - तवेणं - तप से, वोदाणं - व्यवदान। भावार्थ - उत्तर - तपस्या करने से व्यवदान (पूर्वकृत कर्मों का क्षय) होता है। विवेचन - यद्यपि यहाँ पर तप के भेदों का निरूपण नहीं किया है तथापि तप शब्द से बाह्य और आभ्यंतर दोनों ही प्रकार के तपों का ग्रहण कर लेना चाहिए। २८. व्यवदान वोदाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! व्यवदान (पूर्वकृत कर्मों के क्षय) से जीव को क्या लाभ होता है? वोदाणेणं अकिरियं जणयइ, अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ॥२८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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