SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - सुखशाता १६१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - वोदाणेणं - व्यवदान से, अकिरियं - अक्रिय, अकिरियाए भवित्ताअक्रिय होने के। . भावार्थ - उत्तर - पूर्वकृत कर्मों के क्षय हो जाने से जीव अक्रिय हो जाता है। अक्रिय होने के बाद सिद्ध हो जाता है अर्थात् कृतकृत्य हो जाता है, बुद्ध हो जाता है अर्थात् केवलज्ञान केवलदर्शन से सम्पूर्ण लोकालोक को जानने और देखने लग जाता है। समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है। कर्मरूप अग्नि को बुझा कर शीतल हो जाता है तथा शारीरिक और मानसिक सभी दुःखों का अंत कर देता है। विवेचन - संयम से नये कर्मों का आगमन रुक जाता है। तप से पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय हो जाता है। व्यवदान से पूर्व संचित कर्मों के विनाश होने पर आत्मा विशुद्ध हो जाती है तत्पश्चात् आत्मा के अक्रिय और निष्कंप होने पर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था प्राप्त हो जाती है। - कई लोगों का कथन है कि मुक्ति में प्राप्त हुई आत्मा शून्य अवस्था को प्राप्त हो जाती है। परन्तु उनका यह कथन युक्ति और प्रमाण दोनों से ही रहित है। इसी कारण से सूत्रकार ने 'बुद्ध' पद दिया है। जिस समय जिस आत्मा के समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं, तब वह सादिअनंत जो मोक्ष पद है, उसको प्राप्त करके सर्वप्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अंत कर देती है फिर वह जन्म मरण परंपरा के चक्र में नहीं आती है। २१. सुरवशाता सुहसाएणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! सुखशाता (विषय सुख का त्याग करने) से जीव को क्या लाभ होता है? .. सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ, अणुस्सुयएणं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोगे चरित्तमोहणिज्जं कम्मं खवेइ॥२६॥ - कठिन शब्दार्थ - सुहसाएणं - सुखशाता से, अणुस्सुयत्तं - अनुत्सुकता, अणुकंपए - अनुकम्पा करने वाला, अणुब्भडे - अनुद्भट - उद्धतता से रहित, विगयसोगे - विगत शोकशोक रहित, चरित्तमोहणिज्जं - चारित्र मोहनीय। - भावार्थ - उत्तर - सुखशाता से अर्थात् विषय सुख का त्याग करने से जीव को अनुत्सुकता अर्थात् विषयों के प्रति अनिच्छा उत्पन्न होती है। अनुत्सुकता से विषयों के प्रति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy