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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - अनुप्रेक्षा १८५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पडिपुच्छणयाए णं सुत्तत्थतदुभयाइं विसोहेइ, कंखामोहणिज्जं कम्म वोच्छिंदइ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - पडिपुच्छणयाए - प्रतिपृच्छना से, सुत्तत्थतदुभयाइं - सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ दोनों को, कंखामोहणिज्जं - कांक्षा-मोहनीय को, वोच्छिंदइ - विच्छिन्न कर देता है। भावार्थ - उत्तर - प्रतिपृच्छना से जीव सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ दोनों को विशुद्ध करता है और कांक्षा-मोहनीय कर्म का विच्छिन्न-नाश कर देता है। विवेचन - सूत्र और अर्थ में संदेह उत्पन्न होने पर उसकी निवृत्ति के लिए विनयपूर्वक शंका-समाधान करना 'प्रतिपृच्छना' कहलाती है। ... २१. परिवर्तना ... परियट्टणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? ____ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! परिवर्तना (पढ़े हुए सूत्रपाठ का पुनः पुनः परावर्तन करने) से जीव को क्या लाभ होता है? - परियहणयाए णं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ॥२१॥ .. कठिन शब्दार्थ - परियट्टणयाए णं - परिवर्तना से, वंजणाई - व्यंजनों की, वंजणलद्धि- व्यञ्जन लब्धि को, उप्पाएइ - प्राप्त कर लेता है। भावार्थ - उत्तर - परिवर्तन (परावर्तन) से भूले हुए व्यञ्जन याद हो जाते हैं और व्यञ्जन-लब्धि (अक्षर-लब्धि और पदलब्धि) उत्पन्न हो जाती है। विवेचन - पढ़े हुए सूत्र और अर्थ की बार-बार आवृत्ति करना अर्थात् गुनते रहना परावर्तना कहलाती है। इस से सूत्रार्थ उपस्थित रहता है। ऐसे जीव को व्यंजन लब्धि (सूत्र के एक अक्षर याद आ जाने के तदनुकूल दूसरे सैकड़ों अक्षरों की स्मृति हो जाना) प्राप्त हो जाती है तथा एक पद याद आने से दूसरे सैकड़ों पदों का याद आ जाना पदानुसारिणी लब्धि भी प्राप्त हो जाती है। २१ अनुप्रेमा अणुप्पेहाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनुप्रेक्षा (चिन्तन) से जीव को क्या लाभ होता है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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