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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वाचना से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है ? वाणा णं णिज्जरं जणयइ, सुयस्स अणुसज्जणाए अणासायणाए वहड़, सुयस्स य अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्मं अवलंबइ, तित्थधम्मं अवलंबमाणे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ १६ ॥
कठिन शब्दार्थ - वायणाए - वाचना से, अणुसज्जणाए - अनुषञ्जन - अनुवर्त्तन से, वह प्रवृत्त होता है, तित्थधम्मं तीर्थ धर्म का अवलंबइ अवलम्बन लेता है,
महाणिज्जरे महानिर्जरा वाला, महापज्जवसाणे
महापर्यवसान - कर्मों का सर्वथा अंत
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करने वाला ।
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भावार्थ उत्तर
आगम की वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है और श्रुत का वाचन ( पठन पाठन) होते रहने से अनुषञ्जन - अनुवर्त्तन से श्रुत की आशातना नहीं होती । श्रुत की अनुवर्त्तन से आशातना न करता हुआ जीव तीर्थधर्म का अवलम्बन प्राप्त करता है। तीर्थधर्म का अवलम्बन करता हुआ जीव कर्मों की महानिर्जरा करता है और महापर्यवसान - कर्मों का अन्त कर के मोक्ष सुख को प्राप्त करता है।
विवेचन
वाचना का अर्थ है - पठन-पाठन अध्ययन-अध्यापन करना । वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है।
तीर्थ का अर्थ है गणधर, उसका जो आचार तथा श्रुत प्रधान रूप धर्म उसके आश्रित हो जाता है, अथवा श्रुत रूप तीर्थ का जो स्वाध्याय रूप धर्म है उसके आश्रित होते हुए यह जीव महा-निर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् कर्मों का क्षय और संसार का अंत कर लेता है । सारांश यह है कि वाचना से एक तो श्रुत के पठन पाठन की परंपरा बनी रहती है, दूसरी श्रुत की आशातना नहीं होती और तीसरे श्रुत में प्रतिपादन किए हुए धर्म का आश्रय लेकर कर्मों की निर्जरा करता हुआ जीव संसार का अंत कर देता है अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
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२०. प्रतिपृच्छना
पडिपुच्छणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्रतिपृच्छना से जीव को क्या लाभ होता है?
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