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________________ १८२ उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 00000000NOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO000000 कठिन शब्दार्थ - पायच्छित्त-करणेणं - प्रायश्चित्त करने से, पावकम्मविसोहिं - पाप कर्मों की विशुद्धि, णिरइयारे - निरतिचार, मग्गफलं - मार्ग के फल को, आयारं - आचार को, आयारफलं - आचार - चारित्र के फल को, आराहेइ - प्राप्त कर लेता है। भावार्थ - उत्तर - प्रायश्चित्त करने से जीव पाप कर्मों की विशुद्धि करता है और वह निरतिचार (दोषों से रहित) हो जाता है। सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त ग्रहण करता हुआ जीव मार्ग (सम्यक्त्व) और मार्ग के फल (मोक्ष) को विशुद्ध करता है और क्रमशः वह जीव आचार - चारित्र को और चारित्र के फल (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है। विवेचन - प्रायः का अर्थ है पाप और चित्त का अर्थ है विशुद्धि को, जिससे पापों की विशुद्धि हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। __पूर्व के अट्ठाईसवें अध्ययन में यह बताया है कि सबसे पहले दर्शन होता है तथा चारित्र प्राप्ति का कारण होने से दर्शन और ज्ञान ही उसका फल है, अतः ज्ञानाचार आदि का फल मोक्ष कहा है। अथवा मार्ग शब्द से मुक्ति मार्ग का ग्रहण करना चाहिए और क्षायोपशमिक दर्शन आदि उस मार्ग के फल हैं। जब वे प्रकर्ष दशा को प्राप्त हुए क्षायिक भाव को प्राप्त होते हैं तब उनका फल मुक्ति है। इसलिए विशोधना और आराधना के द्वारा सर्वदा निरतिचार संयम का ही पालन करना चाहिए जिसका कि फल मोक्षपद की प्राप्ति है। १७ अमापना खमावणयाए णं भंते! जीवे किं जणयड? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! क्षमापना से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है? खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ, पल्हायण भावमुवगए य सव्वपाणभूय-जीव-सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ, मित्तीभावमुवगए यावि जीवे भावविसोहिं काऊण णिब्भए भवइ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - खमावणयाए - क्षमापना से, पल्हायणभावं - प्रल्हाद भाव - चित्त की प्रसन्नता को, सव्वपाणभूयजीवसत्तेसु - सर्व प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों में, मित्तीभावंमैत्री भाव, उप्पाएइ - उत्पन्न करता है, भावविसोहिं - भावविशुद्धि को, णिन्भए - निर्भय। भावार्थ - उत्तर - अपराध की क्षमा मांगने से चित्त आह्लादित होता है और प्रह्लादनभावचित्त की प्रसन्नता को प्राप्त हुआ जीव समस्त प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों (संसार के समस्त प्राणियों) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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