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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - राजेन्द्र कोश में बतलाया है कि एक श्लोक से लेकर सात श्लोक तक गुण वर्णन करना 'स्तव' में कहलाता है। खड़े होकर जघन्य चार, मध्यम आठ और उत्कृष्ट १०८ श्लोकों तक वर्णन गुण करना 'स्तुति' कहलाता है। कहीं पर इससे विपरीत व्याख्या भी मिलती है यथा एक से लेकर सात श्लोक तक स्तुति कहलाती है एवं आगे स्तव कहलाता है। Jain Education International सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - १५ काल प्रतिलेखना कालपडिलेहणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? भावार्थ प्रश्न - हे भगवन्! काल - प्रतिलेखना ( स्वाध्याय काल के ज्ञान) से जीव को क्या लाभ होता है ? कालपडिलेहणयाए णं णाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । - - भावार्थ उत्तर काल प्रतिलेखना से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है अर्थात् स्वाध्यायादि काल का ज्ञान रहने से साधु उस समय में स्वाध्यायादि करता है। स्वाध्याय करने से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है। विवेचन काल प्रतिलेखना का अर्थ यह है कि स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना किन्तु अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय नहीं करना । आगम विहित जो प्रादोषिक आदि काल हैं, उनमें यथा विधि निरूपणा ग्रहण करना तथा प्रतिजागरणा अर्थात् समय का विभाग करके उसके अनुसार क्रियाएं करना, यह काल प्रतिलेखना है । काल प्रतिलेखना से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है क्योंकि समय विभाग के अनुसार चलने से आत्मा को प्रमाद रहित होना और उपयोग रखना पड़ता है उसी के फलस्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो जाता है। - - प्रायश्चित्तकरण १६. प्रायश्चित्तकरण For Personal & Private Use Only १८ १ 000 - - पायच्छित्तकरणेणं भंते! जीवे किं जणय ? भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! प्रायश्चित्त करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है ? पायच्छित्त- करणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, णिरइयारे यावि भवइ, सम्म चणं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ, आयारं च आयारफलं च आराहेइ ॥ १६ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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