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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - प्रत्याख्यान १७६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक एवं अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटा कर संयम मार्ग में विचरण करता है। विवेचन - प्रतिक्रमण का अर्थ है - ज्ञान-दर्शन चारित्र में प्रमादवश जो दोष-अतिचार लगे हों, उनके कारण जीव स्वस्थान से परस्थान में - संयम से असंयम में गया हो उससे प्रतिक्रम करना - वापिस लौटना - उन दोषों या स्वकृत अशुभयोगों से निवृत्त होना। १२. कायोत्सर्ग काउस्सग्गेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! कायोत्सर्ग से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है? काउस्सग्गेणं तीयपडुप्पण्णं पायच्छित्तं विसोहेइ, विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे णिव्वुयहियए ओहरियभरुव्व भारवाहे पसत्थज्झाणोवगए सुहं सुहेणं विहरइ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - काउस्सग्गेणं - कायोत्सर्ग से, तीयपडुप्पण्णं - अतीत और वर्तमान के, विसुद्धपायच्छित्ते - प्रायश्चित्त से विशुद्ध हुआ, णिव्वुयहियए - निवृत्त हृदय - शांतचिंता रहित हृदय वाला, ओहरियभरुव्व भारवाहे - अपहत भरइव भारवह - भार को उतारने वाले भारवाहक की भांति, पसत्थज्झाणोवगए - प्रशस्तध्यानोपगत - प्रशस्त ध्यान में लीन होकर, सुहंसुहेणं - सुखपूर्वक, विहरइ- विचरण करता है। भावार्थ - उत्तर - कायोत्सर्ग करने से भूतकाल और वर्तमान काल के दोषों का प्रायश्चित्त कर के जीव शुद्ध बनता है। जिस प्रकार बोझ उतर जाने से मजदूर सुखी होता है उसी प्रकार प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना हुआ जीव शान्त हृदय बन कर शुभ ध्यान ध्याता हुआ सुखपूर्वक विचरता है। विवेचन - अतिचारों की शुद्धि के निमित्त शरीर का आगमोक्त उत्सर्ग - ममत्व त्याग करना अथवा अतिचारों का आलोचना द्वारा शोधन करने हेतु ध्यानावस्था में शरीर की समस्त चेष्टाओं का त्याग करना - कायोत्सर्ग है। १३. प्रत्याख्यान पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्रत्याख्यान से जीव को क्या लाभ होता है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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