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________________ १७८ उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन 000000GOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO0000000000000000000000000000000000 भावार्थ - उत्तर - वन्दना करने से नीच-गोत्र कर्म का क्षय करता है। उच्च-गोत्र कर्म को बाँधता है और अप्रतिहत अर्थात् अखण्ड सौभाग्य और सफल आज्ञा के फल को प्राप्त करता है। दाक्षिण्यभाव को प्राप्त करता है अर्थात् वह लोगों का प्रीतिपात्र और मान्य बन जाता है। .. विवेचन - आचार्य, गुरु आदि गुरुजनों को वन्दना - यथोचित प्रतिरूप विनयभक्ति करने से जीव के यदि पूर्व में नीच गोत्र भी बांधा हुआ हो तो उसे दूर करके वह उच्च गोत्रउत्तमकुलादि में उत्पन्न कराने वाले कर्म का उपार्जन कर लेता है। इसके अतिरिक्त वह अखण्ड सौभाग्यशाली होता है, उसकी आज्ञा सफल होती है अर्थात् वह जन समुदाय का मान्य नेता बन जाता है उसकी आज्ञा को लोग शिरोधार्य करते हैं तथा वह दाक्षिण्य भाव - जनजन के मानस में अनुकूल भाव अर्थात् लोकप्रियता को प्राप्त कर लेता है। अपने दाहिने कान से लेकर बांये कान तक अंजलि बद्ध दोनों हाथों को यतना पूर्वक घुमाना आदक्षिण-प्रदक्षिण कहलाता है। आदक्षिण प्रदक्षिण पूर्वक पञ्चाङ्गों को (दो हाथ, दो घुटने और मस्तक) नमाकर विनय पूर्वक गुणी जनों को, गुरुजनों को और बड़ों को नमस्कार करना वंदन' कहलाता है। ११. प्रतिक्रमण पडिक्कमणेणं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है? पडिक्कमणेणं वयच्छिदाई पिहेइ, पिहियवयच्छिद्दे पुण जीवे णिरुद्धासवे असबल-चरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए विहरइ॥११॥ ____कठिन शब्दार्थ - पडिक्कमणेणं - प्रतिक्रमण करने से, वयच्छिदाई - व्रतों के छिद्रों को ढांकने वाला, णिरुद्धासवे - आस्रवों को रोक देता है, असबलचरित्ते - चारित्र पर आये हुए धब्बे मिटा देता है, अट्ठसु पवयणमायासु - अष्ट प्रवचन माताओं में, उवउत्ते - उपयोगवान्सावधान, अपुहत्ते - पृथक्त्व रहित, सुप्पणिहिए - सम्यक् प्रकार से प्रणिहित - समाधि युक्त होकर। भावार्थ - उत्तर - प्रतिक्रमण करने से व्रतों में बने हुए छिद्रों को बन्द करता है फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शबलादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला हो कर आठ प्रवचन माताओं में उपयुक्त-सावधान होता है। अपृथक्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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