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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - वन्दना १७७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - संसार के समस्त जीवों को अपनी आत्मा के तुल्य समझना 'सम' कहलाता है। उस 'सम' का लाभ होना सम+आय-समाय है। इसी अर्थ में संस्कृत में 'इक' प्रत्यय लगकर ‘सामायिक' शब्द बनता है। शत्रु, मित्र सभी जीवों पर समभाव की प्राप्ति होना सामायिक कहलाती है। अनुयोगद्वार सूत्र में तथा आवश्यक सूत्र में इसका विस्तृत वर्णन है। १. चतुर्विंशतिस्तव चउवीसत्थए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! चौबीस तीर्थंकरों का स्तव (स्तवन) नाम कथन पूर्वक गुण कीर्तन करने से जीव को क्या फल अर्थात् लाभ मिलता है? चउवीसत्थएणं दसणविसोहिं जणयइ। कठिन शब्दार्थ - चउवीसत्थएणं - चतुर्विंशतिस्तव से, दंसणविसोहिं - दर्शन की विशुद्धि। . भावार्थ - उत्तर - चौबीस तीर्थंकरों का स्तव (स्तवन) करने से दर्शन-सम्यक्त्व की विशुद्धि होती है। विवेचन - चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल की चौबीसी के चौबीस तीर्थंकरों का श्रद्धापूर्वक गुणोत्कीर्तन करने से जीव के दर्शन में बाधा उत्पन्न करने वाले जो कर्म हैं वे दूर हो जाते हैं। सम्यक्त्व, चल-मल-अगाढ़ दोष से रहित निर्मल-शुद्ध हो जाता है। १०. वन्दना वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! गुरु महाराज को वन्दना करने से जीव को क्या लाभ होता है? वंदणएणं णीयागोयं कम्मं खवेइ, उच्चागोयं कम्मं णिबंधइ, सोहग्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं णिव्वत्तेइ, दाहिणभावं च णं जणयइ। .. कठिन शब्दार्थ. - वंदणएणं - वंदना करने से, णीयागोयं कम्मं - नीच गोत्र कर्म का, उच्चागोयं - उच्च गोत्र को, सोहग्गं - सौभाग्य, आणाफलं - आज्ञा का प्रतिफल, अप्पडिहयंअप्रतिहत, दाहिणभावं - दाक्षिण्यभाव को। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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