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७. गर्हणा
गरिहणयाए णं भंते! जीवे किं जणय ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! आत्मगर्हा से जीव को क्या लाभ होता है? गरिहणयाए णं अपुरस्कारं जणयइ, अपुरस्कारगए णं जीवे अप्पसत्थेहिंतो जोगेहिंतो णियत्तेइ, पसत्थे य पडिवज्जइ पसत्थ जोगपडिवण्णे य णं अणगारे. अतघाई पज्जवे खवे ॥७ ॥
कठिन शब्दार्थ - गरिहणयाए - गर्हणा से, अपुरक्कारं - अपुरस्कार- आत्मलघुता ( आत्म विनम्रता या गौरवहीनता) को, अप्पसत्थेहिंतो अप्रशस्त, जोगेहिंतो - योगों से, णियत्तेइ - निवृत्त हो जाता है, पसत्थे प्रशस्त, जोगपडिवण्णे - योगों को प्राप्त, अणंतघाई पज्जवे - अनंत ज्ञान दर्शनादि की घात करने वाली पर्यायों का ।
उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन
भावार्थ - उत्तर आत्मग करने से अपुरस्कार भाव (गर्व-भंग) की उत्पत्ति होती है और आत्म-नम्रता प्राप्त होती है। आत्मनम्रता को प्राप्त हुआ जीव अप्रशस्त अशुभ योगों से निवृत्त हो जाता है और प्रशस्त शुभ योगों को प्राप्त होता है और शुभ योगों को प्राप्त हुआ अनगार (साधु) अनन्तज्ञान - दर्शनादि की घात करने वाली कर्म-पर्यायों को क्षय कर देता है।
विवेचन - गुरु के सामने अपने दोषों को प्रकट करना 'गर्हा' कहलाती है। आत्मसाक्षी से अपने पापों की निंदा करने के बाद गुरु के सामने अपने दोषों को प्रकट करना भी आवश्यक है। क्योंकि निंदा के अपेक्षा गर्हा का महत्त्व अधिक है। आत्मार्थी पुरुष ही गर्हा कर सकता है।
८. सामायिक
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सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ ?
भावार्थ प्रश्न हे भगवन्! सामायिक करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
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निवृत्ति ।
भावार्थ - उत्तर - सामायिक करने से सावद्य योगों से निवृत्ति होती है ।
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सामाइएणं सावज्ज-जोग - विरइं जणयइ ।
कठिन शब्दार्थ - सामाइएणं - सामायिक से, सावज्ज-जोग-विरइं- सावद्य योगों से
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