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________________ सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - निन्दना १७५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 निकलता तब तक खटकता रहता है। इसी तरह से ये तीन शल्य भी हृदय में खटकते रहते हैं - १. माया शल्य (कपटाई) २. निदान शल्य (की हुई धर्मकरणी के फल को मांग लेना) ३. मिथ्यादर्शनशल्य (कुदेव, कुगुरु, कुधर्म की मान्यता रखना, इन्हें सुदेव सुगुरु सुधर्म मानना)। - गुरु महाराज के आगे आलोचना करने से पाप का भार उतर कर हृदय हलका हो जाता है। आलोचना के दो भेद हैं - पर की आलोचना और स्व (आत्मा की) आलोचना। पर की आलोचना (निंदा) करने से तो कर्म बंध होता है और जीव विराधक बन जाता है। इसलिए दूसरों की आलोचना नहीं करनी चाहिये। स्वयं की आलोचना करने से जीव कर्मों के भार से हलका हो जाता है। भगवान् की आज्ञा का आराधक बन जाता है। जैसा कि कहा है - 'आलोयणा निज दोष नी कीजे, गुरु समीपे जायजी।' ६ निन्दना जिंदणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! आत्मनिन्दा अर्थात् अपने दोषों की स्वयं निन्दा करने से जीव को क्या लाभ होता है? - जिंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ, पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करणगुणसेटिं पडिवज्जइ, करणगुणसेढिपडिवण्णे य अणगारे मोहणिज्जं कम्म उग्घाएइ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - जिंदणयाए - निन्दना से, पच्छाणुतावं - पश्चात्ताप, करणगुणसेढिंकरण गुण श्रेणी को, पडिवज्जइ - प्राप्त होता है, करणगुणसेढिपडिवण्णे - करण गुण श्रेणी को प्राप्त, मोहणिज्जं कम्मं - मोहनीय कर्म को, उग्याएइ - नष्ट कर देता है। भावार्थ - उत्तर - अपने दोषों की निंदा करने से पश्चात्ताप होता है। पश्चात्ताप करने से वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य के कारण जीव क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है और क्षपक श्रेणी पर चढ़ा हुआ अनगार मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है। मोहनीय कर्म का क्षय होने से मोक्ष होता है। ‘विवेचन - यहाँ 'करण' शब्द से ८ वें गुणस्थान से पहले होने वाला अपूर्वकरण लिया गया है। इस प्रकार के अपूर्व परिणामों द्वारा जीव क्षपक श्रेणि प्राप्त करता है और उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। निन्दा आत्म-साक्षी से होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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