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सम्यक्त्व पराक्रम - सम्यक्त्व पराक्रम के ७३ मूल सूत्र - गुरु-साधर्मिक शुश्रूषा १७३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
गुरुसाहम्मिय-सुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्तिं जणयइ, विणयपडिवण्णे य णं जीवे अणच्चासायणसीले णेरड्य-तिरिक्ख-जोणिय-मणुस्स-देव-दुग्गईओ णिरुंभइ, वण्णसंजलण-भत्ति-बहु-माणयाए मणुस्सदेवसुग्गईओ णिबंधइ, सिद्धिसोग्गइं च विसोहेइ, पसत्थाई च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाई साहेइ, अण्णे य बहवे जीवा विणइत्ता भवइ॥४॥
कठिन शब्दार्थ - गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणयाए - गुरु और साधर्मिकों की शुश्रूषा से, विणयपडिवत्तिं - विनय प्रतिपत्ति को, अणच्चासायणसीले - आशातना रहित स्वभाव वाला होकर, णेरइय-तिरिक्ख-जोणिय-मणुस्स-देव-दुग्गईओ - नारकी, तिर्यंच, मनुष्य, देव संबंधी दुर्गतियों का, णिरुंभइ - निरोध करता है, वण्णसंजलणभत्ति बहुमाणयाए - वर्ण-श्लाघा संज्वलन - गुणों का प्रकाशन भक्ति और बहुमान से, मणुस्सदेवसुग्गईओ - मनुष्य देव सुगतियों का, णिबंधइ - बंध करता है, सिद्धिसोग्गइं - श्रेष्ठ गति रूप सिद्धि को, पसत्थाईप्रशस्त, विणयमूलाई - विनय मूलक, सव्वकज्जाई - सब कार्यों को, साहेइ - सिद्ध कर लेता है, विणइत्ता - विनय ग्रहण कराने वाला। .. भावार्थ - उत्तर - गुरुजनों की तथा साधर्मियों की सेवा शुश्रूषा करने से विनय प्रतिपत्ति अर्थात् विनय की प्राप्ति होती है। विनय को प्राप्त हुआ जीव सम्यक्त्वादि का नाश करने वाली आशातना का त्याग कर देता है, फिर वह जीव नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गतियों का निरोध कर देता है। गुरुजनों का गुणकीर्तन, प्रशंसा, संज्वलन भक्ति बहुमान करने से मनुष्य और देवों में उत्तम ऐश्वर्य आदि सम्पन्न शुभ-गति का बन्ध करता है। सिद्धि सुगतिमोक्ष के कारणभूत ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष-मार्ग की विशुद्धि करता है। विनय-मूलक प्रशस्त सभी उत्तम कार्यों को सिद्ध कर लेता है और दूसरे बहुत-से जीवों को विनयवान् करता है अर्थात् उसे देखकर बहुत से जीव विनयवान् बनते हैं।
विवेचन - शुश्रूषा शब्द के विभिन्न अर्थ - १. सद्बोध और धर्मशास्त्र सुनने की इच्छा २. परिचर्या ३. गुरु आदि की वैयावृत्य ४. गुरु के आदेश को विनयपूर्वक सुनने की वृत्ति ५. न अतिदूर और न अतिनिकट किंतु विधिपूर्वक सेवा करना। - विनय प्रतिपत्ति के चार अंग - १. वर्ण - गुणाधिक व्यक्ति की प्रशंसा २. संज्वलन - गुणों को प्रकट करना ३. भक्ति - हाथ जोड़ना, गुरु के आने पर उठ कर सामने जाना, आदर देना और ४. बहुमान - अंतर में प्रीति, मन में आदरभाव।
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