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उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन . 000000000000000000000000000000000000000000000000000000
३. धर्म श्रद्धा धम्मसद्धाए णं भंते! जीवे किं जणयइ? भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! धर्म श्रद्धा से जीव को क्या लाभ होता है?
धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्मं च णं चयइ, अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयणभेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वाबाहं च सुहं णिव्वत्तेइ॥३॥
कठिन शब्दार्थ - धम्मसद्धाए णं - धर्म पर पूर्ण श्रद्धा रखने से, सायासोक्खेसु - साता सुखों - साता वेदनीय कर्मजन्य विषय सुखों में, रज्जमाणे - अनुरक्ति-आसक्ति से, अगारधम्म- अगार-धर्म - गृहस्थ धर्म को, चयइ - त्याग देता है, अणगारिए - अनगार - मुनि हो कर, सारीरमाणसाणं - शारीरिक और मानसिक, दुक्खाणं - दुःखों का, छयणभेयणछेदन भेदन, संजोगाईणं - संयोग आदि, वोच्छेयं - विच्छेद, अव्वाबाहं - अव्याबाध - समस्त बाधा रहित, सुहं - सुख को, णिव्वत्तेइ - निष्पन्न - प्राप्त करता है। - भावार्थ - उत्तर - धर्म पर पूर्ण श्रद्धा रखने से सातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त हुए जिन सुखों में जीव अनुराग करता था, उन सुखों से विरक्त हो जाता है और अगार धर्म - गृहस्थ धर्म का त्याग कर देता है। अनगार - मुनि बन कर शारीरिक और मानसिक दुःखों का छेदन-भेदन कर देता है तथा संयोग-वियोगजन्य दुःखों का व्यवच्छेद (नाश) कर देता है और अव्याबाध (बाधा-पीड़ा रहित) मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लेता है।
विवेचन - यहाँ पर 'धर्म श्रद्धा' शब्द से 'चारित्र धर्म पर श्रद्धा करना' अर्थ समझना चाहिए। संवेग के फल में जो धर्म श्रद्धा का कथन किया गया है उसमें श्रुत एवं चारित्र धर्म पर श्रद्धा करना बताया गया है। यहाँ पर विशिष्ट धर्म श्रद्धा को समझने से पुनरुक्ति दोष की संभावना नहीं रहती है।
. गुरु-साधर्तिक शुश्रूषा गुरुसाहम्मिय सुस्सूसणयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ?
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! गुरुजनों तथा साधर्मियों की सेवा शुश्रूषा करने से जीव को क्या लाभ होता है?
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