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________________ उत्तराध्ययन सूत्र - उनतीसवाँ अध्ययन सव्वदुक्खाणमंतं करेइ, विसोहिए णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं णाइक्कमइ ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - अणुत्तरं - अनुत्तर - उत्कृष्ट, धम्मसद्धं - धर्मश्रद्धा, अणुत्तराए धम्मसद्धाएअनुत्तर धर्म श्रद्धा से, हव्वं - शीघ्र, आगच्छइ आता है, अणंताणुबंधी - अनंतानुबंधी, खवेइ क्षय करता है, णवं नये, कम्मं कर्मों को, ण बंधड़ - नहीं बांधता है, तप्पच्चइयं उसके निमित्त (कारण), मिच्छत्तविसोहिं - मिथ्यात्व विशुद्धि, काऊण करके, दंसणाराहए - दर्शनाराधक, दंसणविसोहिएणं - दर्शन विशोधि के द्वारा, विसुद्धाए - विशुद्ध होने से, अत्थेगइए - कई एक, तेणेव भवग्गहणेणं - उसी जन्म में, सिज्झइ - सिद्ध होता है, बुज्झइ - बुद्ध होता है, मुच्चइ मुक्त हो जाता है, परिणिव्वायइ- परिनिर्वाण को प्राप्त होता है, सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ - सभी दुःखों का अंत कर देता है, तच्चं- तीसरे, पुणो- फिर, भवग्गहणं - भवग्रहण भव का, णाइक्कमइ - अतिक्रमण नहीं करता । १७० GOO - Jain Education International - - - - भावार्थ उत्तर - संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से अनुत्तर - उत्कट धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है । अनुत्तर - सर्वोत्कृष्ट धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही संवेग (उत्कृष्ट मोक्ष की अभिलाषा) उत्पन्न होता है। और संवेग से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय होता है और नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता। कर्मबन्धन के निमित्त कारण मिथ्यात्व की विशुद्धि कर के क्षायिक सम्यक्त्व का आराधक हो जाता है। दर्शन - सम्यक्त्व की विशुद्धि से विशुद्ध बने हुए कोई एक जीव उसी भव में सिद्ध हो जाता है, बुद्ध हो जाता है, कर्मों से मुक्त हो जाता है, परिनिर्वाण - परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है, सभी दुःखों का अन्त कर देता है। जो उसी भव में मोक्ष नहीं जाता है वह सम्यक्त्व की उच्च विशुद्धि के कारण फिर तीसरे भवग्रहण भव का अतिक्रमण नहीं करता अर्थात् तीसरे भव में तो अवश्य मोक्ष पा लेता है, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद जीव संसार में तीन भव से अधिक भव नहीं करता । विवेचन - संवेग अर्थात् सम्यक् उद्वेग - मोक्ष के प्रति उत्कंठा अभिलाषा या संसार के दुःखों से भीति पाकर मोक्ष के सुखों की अभिलाषा । देव, गुरु, धर्म एवं तत्त्वों पर निश्चल अनुराग संवेग है। क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले यदि आयुष्य का बंध न हुआ हो तो वह उसी भव में मोक्ष चला जाता है। यदि पहले आयुष्य का बंध हो गया हो तो तीसरे भव में या युगलिक का आयुष्य बंध हो गया हो तो चौथे भव में अवश्य मोक्ष चला जाता है। For Personal & Private Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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