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________________ मोक्षमार्ग गति - दर्शनाचार के भेद कठिन शब्दार्थ - णिस्संकिय - निःशंकित, णिक्कंखिय - निष्कांक्षित-आकांक्षा रहित, णिव्वितिगिच्छा - निर्विचिकित्सा, अमूढदिट्ठी - अमूढदृष्टि, उववूह - उपबृंहण, थिरीकरणेस्थिरीकरण, वच्छल्ल वात्सल्य, पभावणे - प्रभावना, अट्ठ आठ । भावार्थ १. निःशंकित - वीतराग - सर्वज्ञ के वचनों में शंका न करना २. निष्कांक्षितपरदर्शन की आकांक्षा न करना अथवा सुख की आकांक्षा न करना और दुःख से द्वेष न करना, किन्तु सुख-दुःख को अपने किये हुए कर्मों का फल समझ कर समभाव रखना ३. निर्विचिकित्सा - धर्म के फल में सन्देह न करना अथवा अपने ब्रह्मचर्य आदि व्रतों के पालन की दृष्टि से साधु साध्वियों का मैला शरीर और मैले कपड़े देख कर घृणा न करना ४. अमूढदृष्टि - कुतीर्थियों को ऋद्धिशाली देख कर भी अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखना ५. उपबृंहा - गुणीजनों को देख कर उनकी प्रशंसा करना एवं उनके गुणों की वृद्धि करना तथा स्वयं भी उन गुणों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ६. स्थिरीकरण - धर्म से डिगते प्राणी को धर्म में स्थिर करना और ७. वात्सल्यसाधर्मियों के साथ वात्सल्यभाव रखना ८ प्रभावना जैनधर्म की प्रशंसा और उन्नति के लिए ये आठ दर्शनाचार हैं। हैं - - - चेष्टा करना, विवेचन' - उपर्युक्त गाथा में आये हुए सम्यक्त्व (दर्शन) के आठ आचारों में से शुरू के चार आचार तो व्यक्तिगत जीवन से संबंधित है। आगे के चार आचार (पांचवें से आठवें तक) संघीय व्यवस्था से संबंधित है। अथवा इनमें से प्रथम के चार आचार तो अन्तरंग हैं और आगे के चार बहिरंग कहे जाते हैं। इन आठ आचारों के द्वारा दर्शन की पुष्टि होती है और सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। इन आठ आचारों का विस्तार से वर्णन इस प्रकार है - Jain Education International १. निःशंकता - जिनोक्त तत्त्व, देव, गुरु, धर्म-संघ या शास्त्र आदि में देशतः या सर्वतः शंका का न होना सम्यग्दर्शनाचार का प्रथम अंग निःशंकता है। शंका के दो अर्थ किये गए हैं - संदेह और भय । अर्थात् जिनोक्त तत्त्वादि के प्रति संदेह अथवा सात भयों से रहित होना निःशंकित सम्यग्दर्शन है । २. निष्कांक्षा - कांक्षा रहित होना निष्कांक्षित सम्यग्दर्शन है। कांक्षा के दो अर्थ मिलते १. एकान्तदृष्टि वाले दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा अथवा २. धर्माचरण से इहलौकिक-पारलौकिक वैभव या सुखभोग आदि पाने की इच्छा । ३. निर्विचिकित्सा विचिकित्सा रहित होना सम्यग्दर्शन का तृतीय आचार है। - १५७ 000 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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