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___उत्तराध्ययन सूत्र - अट्ठाईसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही भाव चारित्र की प्राप्ति होती है। अतः समकित का बड़ा महत्त्व है। सभी जीव अनादि काल से मिथ्यादृष्टि ही हैं। जीव समदृष्टि पीछे ही बनता है। निथ्यादृष्टि के तीन भेद हैं - १. अनादि अपर्यवसित (आदि रहित और अंत रहित) ऐसा जीव अभवी होता है वह अनादिकाल से मिथ्यात्वी तो है ही उसके मिथ्यात्व का कभी भी अन्त नहीं होता। वह मिथ्यादृष्टि ही, बना रहता है। २. अनादि सपर्यवसित अर्थात् अनादि से मिथ्यादृष्टि तो है किन्तु उसके मिथ्यात्व का अंत आ जाता है ऐसा जीव भवी (भवसिद्धिक) होता है। ३. सादि सपर्यवसित अर्थात् किसी भवी जीव को औपशमिक अथवा क्षायोपशमिक समकित की प्राप्ति हुई किन्तु कालांतर में उसकी समकित चली गयी और मिथ्यादृष्टि बन गया फिर कालांतर में उसको समकित की प्राप्ति होगी। ऐसा जीव सादि सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि कहलाता है। उसके गुणस्थान चढ़ने की चार मार्गणाएं हैं - पहले से तीसरे या चौथे या पांचवें या सातवें गुणस्थान में। पहले गुणस्थान से सीधा सातवें गुणस्थान में जाने वाले जीव को सम्यक्त्व और भाव चारित्र दोनों एक साथ प्राप्त होते हैं। किन्तु उसमें भी सम्यक्त्व की प्राप्ति पहले और भाव चारित्र की प्राप्ति पीछे होती है। यही आशय इस गाथा में बतलाया गया है।
णादंसणिस्स णाणं, णाणेण विणा ण हुंति चरणगुणा। अगुणिस्स णत्थि मोक्खो, णत्थि अमोक्खस्स णिव्वाणं॥३०॥
कठिन शब्दार्थ - अदंसणिस्स - दर्शन रहित को, णाणं - ज्ञान, णाणेण विणा - ज्ञान के बिना, ण - नहीं, चरणगुणा - चारित्र के गुण, अगुणिस्स - चारित्र गुण रहित मनुष्य का, मोक्खो णत्थि - मोक्ष नहीं होता, अमोक्खस्स - अमुक्त का, णिव्वाणं - निर्वाण। ___ भावार्थ - सम्यग्दर्शन (समकित) रहित पुरुष के सम्यग्ज्ञान नहीं होता। सम्यग्ज्ञान के बिना चारित्रगुण प्रगट नहीं होते। चारित्रगुण-रहित मनुष्य का मोक्ष नहीं होता और कर्मों से छुटकारा हुए बिना निर्वाण (सिद्धि पद) की प्राप्ति नहीं होती है।
दर्शनाचार के भेद णिस्संकिय णिक्कंखिय, णिब्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी य। उववूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अट्ठ॥३१॥
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