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उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्राणियों की दया के लिए, तवहेउं - तप करने के लिए, सरीरवोच्छेयणट्ठाए - काया के व्युच्छेदनार्थ। ___ भावार्थ - १. आतंक-रोग ग्रस्त होने पर २. देव-मनुष्य तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग आने पर ३. ब्रह्मचर्य-गुप्ति की रक्षा के लिए ४. प्राणी-भूत-जीव और सत्त्वों की रक्षा के लिए ५. तप करने के लिए और ६. अन्तिम समय में शरीर को छोड़ने की दृष्टि से संथारा करने के लिए। इन छह कारणों से आहार-पानी का त्याग करता हुआ साधु साध्वी तीर्थंकर देव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता।
अवसेसं भंडगं गिज्झा, चक्खुसा पडिलेहए। परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरए मुणी॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - अवसेसं - अवशिष्ट, भंडगं - भाण्डोपकरण को, गिज्झा - ग्रहण करके, चक्खुसा - नेत्रों से, पडिलेहए - भलीभांति देख लें, परं - उत्कृष्टतः, अद्धजोयणाओअर्द्ध योजन प्रमाण, विहारं विहरए - विहार करे।
भावार्थ - मुनि सभी भंडोपकरण को लेकर आँख से भली प्रकार देखकर, फिर विहार करे अर्थात् गोचरी के लिए जावे किन्तु उत्कृष्ट आधे योजन (दो कोस) से आगे न जावे।।
विवेचन - गोचरी के लिए साधु, उत्कृष्ट दो कोस तक जा कर आहार-पानी ला सकता है और यदि आहार-पानी साथ में ले कर विहार करे, तो उस आहार-पानी को दो कोस तक ले जा सकता है, आगे नहीं। आगे ले जाने से मार्गातिक्रांत दोष लगता है। ___भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा १ में अतिक्रान्त के चार दोष बतलाए हैं - १. क्षेत्रातिक्रान्त २. कालातिक्रान्त ३. मार्गातिक्रान्त और ४. प्रमाणातिक्रान्त।
जो कोई निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम इन चार प्रकार के आहारादि को सूर्योदय से पहले ग्रहण करके सूर्योदय के बाद खाता है तो यह 'क्षेत्रातिक्रान्त दोष' कहलाता है।
दिन के पहले प्रहर में ग्रहण किये हुए आहार आदि को चौथे प्रहर में खाना 'कालातिक्रान्त' दोष है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधु साध्वी पहले प्रहर में भी गोचरी जा सकते हैं तभी यह कालातिक्रान्त दोष लगने की संभावना रहती है अतः तीसरे प्रहर में गोचरी जाना यह एकान्त नियम नहीं हैं। ____ आधा योजन अर्थात् दो कोश के उपरान्त ले जा कर आहार पानी आदि करना ‘मार्गातिक्रान्त' दोष है।
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