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सामाचारी - चौथी पोरिसी की दिनचर्या
बत्तीस कवल से अधिक आहार करना ' प्रमाणातिक्रान्त' दोष है। चौथी पोरिसी की दिनचर्या
चउत्थीए पोरिसीए, णिक्खिवित्ताण भायणं । सज्झायं च तओ कुज्जा, सव्वभावविभावणं ॥ ३७ ॥
कठिन शब्दार्थ - चउत्थीए पोरिसीए - चौथी पौरुषी (पोरिसी) में, भायणं - पात्रों, णिक्खिवित्ताण - रखकर, सव्वभावविभावणं - सभी भावों को प्रकाशित करने वाली ।
भावार्थ - चौथी पोरिसी में भाजन-पात्रों को रख कर और उसके बाद सभी भावों को प्रकाशित करने वाली एवं समस्त दुःखों से छुड़ाने वाली स्वाध्याय करे । पोरिसीए चउब्भाए, वंदित्ताण तओ गुरुं ।
पडिक्कमित्ता कालस्स, सेज्जं तु पडिलेहए ॥ ३८ ॥ कठिन शब्दार्थ - चउब्भाए चौथे भाग में, वंदित्ताण शय्या की, पडिलेहए - प्रतिलेखना करे ।
वन्दना करके, सेज्जं
भावार्थ - चौथी पोरिसी के चौथे भाग में गुरु महाराज को वन्दना करके तथा उस काल से निवृत्त होकर फिर शय्या आदि की प्रतिलेखना करे ।
विवेचन - इस गाथा में आए हुए 'सेज्जं' शब्द से 'रात्रि में काम आने वाली सभी उपधि' का ग्रहण समझना चाहिए। पात्रों (मात्रक के सिवाय) की उपधि रात्रि में काम नहीं आने से दिन के चतुर्थ प्रहर में उनकी प्रतिलेखना का यहाँ विधान नहीं किया गया है। पात्रों को लेते, रखते एवं बांधते समय तो अच्छी तरह से देखकर यतना पूर्वक बांधना चाहिए। प्रत्येक उपकरणों को यतना पूर्वक लेने एवं रखने को शास्त्रकार आदान निक्षेप समिति कहते हैं । उपकरणों की प्रतिलेखना तो आवश्यकता से आगम में जितनी बार विधि बतलाई है उतनी बार ही करनी चाहिए ।
पासवणुच्चार भूमिं च, पडिलेहिज्ज जयं जई ।
काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ३६ ॥
कठिन शब्दार्थ - पासवणुच्चार भूमिं - प्रस्रवण और उच्चार भूमि का, जयं - यतना पूर्वक, जई -यति-साधु, काउस्सग्गं - कायोत्सर्ग, सव्वदुक्खविमोक्खणं - सर्व दुःखों से मुक्त कराने वाला।
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