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सामाचारी - अप्रशस्त प्रतिलेखना
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उद्धं थिरं अतुरियं पुव्विं ता वत्थमेव पडिलेहे। तो बिइयं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमज्जिज्जा॥२४॥
कठिन शब्दार्थ - उद्धं - ऊर्ध्व, थिरं - स्थिर, अतुरियं - शीघ्रता रहित, पुव्विं ता - पहले तो, वत्थमेव - वस्त्र की, बिइयं - दूसरे में, पप्फोडे - यतना से प्रस्फोटना करे (झटकावे), पमज्जिज्जा - प्रमार्जना करे।
भावार्थ - प्रतिलेखना करने की विधि, उत्कटुक आसन से बैठ कर वस्त्र को भूमि से ऊँचा रखते हुए स्थिरता एवं दृढ़ता पूर्वक वस्त्र को पकड़ कर शीघ्रता न करते हुए पहले तो वस्त्र की प्रतिलेखना करे उसके बाद दूसरी बार यतना से वस्त्र को खंखेरे (धीरे-धीरे झड़कावे) और फिर तीसरी बार यतनापूर्वक पूंजे।
अप्रमाद प्रतिलेखना के भेद अणच्चावियं अवलियं, अणाणुबंधिं अमोसलिं चेव। छप्पुरिमा णवखोडा, पाणीपाणि-विसोहणं॥२५॥
कठिन शब्दार्थ - अणच्चावियं - नचावे नहीं, अवलियं - मरोड़े नहीं, अणाणुबंधिवस्त्र का दृष्टि से अलक्षित विभाग न करे, अमोसलिं - स्पर्शन करे, छप्पुरिमा - छह - पुरिम-क्रियाएं, णवखोडा - नौ खोटक (प्रस्फोट), पाणीपाणि विसोहणं - जीवों को हथेली पर ले कर विशोधन करे। .... भावार्थ - अप्रमाद प्रतिलेखना के छह भेद कहते हैं - १. प्रतिलेखना करते समय शरीर
और वस्त्र को नचावे नहीं। २. वस्त्र कहीं से भी मुड़ा हुआ न रहे और प्रतिलेखन करने वाला भी शरीर बिना मोड़े सीधा बैठे। ३. वस्त्र को जोर से नहीं झड़के। ४. वस्त्र को ऊपर, नीचे या तिर्छ दीवाल आदि से न लगावे। ५. प्रतिलेखना में छह पुरिम और नवखोड़ करने चाहिए। वस्त्र के दोनों हिस्सों को तीन-तीन बार खंखेरना 'छपुरिम' कहलाता है और वस्त्र को तीन-तीन बार पूंज कर तीन बार शोधना 'नवखोड़' कहलाता है और ६. वस्त्रादि पर चलता हुआ यदि कोई जीव दिखाई दे तो उसको अपनी हथेली पर उतार कर रक्षण करना चाहिए।
अप्रशस्त प्रतिलेखना . आरभडा सम्मदा, वजेयव्वा य मोसली तइया। .
पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वेइया छट्ठी॥२६॥
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