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________________ १२० उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन comme OOOOOOOOOOOOOOO OOOOOOOOOOOOOOOOOOONAMA । विवेचन - प्रथम पहर स्वाध्याय का समय है, उसमें जब दो घड़ी शेष रहे, तब उसे छोड़ कर स्वाध्याय के लिए जो चौदह अतिचारों का ध्यान किया जाता है, उसे न करके (क्योंकि फिर स्वाध्याय करना है) पात्रों की प्रतिलेखना करने में लग जाना चाहिए। इस गाथा में आए हुए “भायणं शब्दे से पात्रों की उपधि' का ग्रहण समझना चाहिए। क्योंकि अन्य सभी उपकरणों की प्रतिलेखना का वर्णन आठवीं गाथा में बता दिया गया है। प्रतिलेखना करने की विधि मुहपत्तिं पडिलेहित्ता, पडिलेहिज्ज गोच्छां। गोच्छगलइयंगुलियो, वत्थाई पडिलेहए॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - मुहपत्तिं - मुखवस्त्रिका की, गोच्छगं - रजोहरण की, गोच्छगलइयंगुलियो - गोच्छक को अंगुलियों से ग्रहण करके।. ..... भावार्थ - साधु मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करे फिर पूंजणी और रजोहरणः-लतिका - डण्डी इन सबको हाथ की अंगुलियों पर रख कर रजोहरण की प्रतिलेखना करे। तत्पश्चात् वस्त्रों . की प्रतिलेखना करे। विवेचन - यहाँ पर 'गुच्छग-गोच्छक' का अर्थ 'रजोहरण एवं पूंजनी' समझना चाहिए। यद्यपि वृत्तिकार ने गोच्छक का अर्थ 'पात्रों के ऊपर का उपकरण' ऐसा किया है, परन्तु विचार करने पर यह अर्थ प्रकरण-संगत प्रतीत नहीं होता। यदि पात्रों के ऊपर के वस्त्र को ही यहाँ पर गोच्छक शब्द से ग्रहण करें, तो उक्त गाथा के तीसरे पाद की वृत्ति में जो यह लिखा है कि - 'प्राकृतत्वादंगुलिभिातो गृहीतो गोच्छको येन सोयमंगुलिलातगोच्छकः' अर्थात् अंगुलियों से ग्रहण किया है गोच्छक जिसने, तो फिर उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। इसलिए गोच्छक शब्द का पारिभाषिक अर्थ यहाँ पर 'रजोहरण' ही शास्त्रकार को अभिप्रेत है। तात्पर्य यह है कि - ‘पात्रों पर देने वाले वस्त्र को अंगुलियों में ग्रहण कर के वस्त्रों की प्रतिलेखना करे इसका कुछ भी अर्थ प्रतीत नहीं होता। इसके अतिरिक्त यदि गोच्छक शब्द से रजोहरण' का ग्रहण यहाँ पर न किया जाए, तो फिर उक्त सूत्र में रजोहरण की प्रतिलेखना का विधान करने वाली और कौनसी गाथा है ? अतः 'अंगुलियों से ग्रहण किया है गोच्छक जिसने' इस अर्थ की सार्थकता रजोहरण के साथ ही सम्बन्ध रखती है, क्योंकि रजोहरण में जो फलियाँ होती हैं, उनकी प्रतिलेखना अंगुलियों से ही की जा सकती है। इसलिए गोच्छक शब्द का गुरु परंपरा से प्राप्त जो 'रजोहरण और पूंजनी' अर्थ है, वही युक्ति-संगत प्रतीत होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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