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उत्तराध्ययन सूत्र - छब्बीसवाँ अध्ययन 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
0000000ssseen .. साधु की रात्रि चर्या रत्तिं पि चउरो भागे, भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुज्जा, राइभागेसु चउसु वि॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - रतिं - रात्रि, राइभागेसु - रात्रि के भागों में।
भावार्थ - विचक्षण साधु रात्रि के भी चार भाग करे। उसके बाद रात्रि के चारों ही भागों में उत्तरगुणों की वृद्धि करे अर्थात् प्रत्येक पोरिसी में उसके योग्य स्वाध्यायादि करके अपने गुणों की वृद्धि करे।
पढम पोरिसी सज्झायं, बीयं झाणं झियायइ। तइयाए णिहमोक्खं तु, चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥१॥
भावार्थ - पहले पहर में स्वाध्याय करे। दूसरे पहर में ध्यान करे और तीसरे पहर में निद्रा को मुक्त करे - अर्थात् नींद को रोके नहीं, किन्तु खुली छोड़ दे और चौथे पहर में फिर स्वाध्याय करे।
विवेचन - अठारहवीं गाथा में आए हुए 'णिहमोक्ख' शब्द का अर्थ 'निद्रामोक्षण' समझना चाहिए। इसका आशय यह है कि अन्य प्रहरों में जो निद्रा, स्वाध्याय आदि कार्यों में विघ्न कर रही थी उसे मुक्त कर देना। अर्थात् - विधि पूर्वक अनशन (सागारी संथारा) आदि करके यतना पूर्वक शयन करना चाहिये। शारीरिक विश्राम हेतु एवं प्रमाद घटाने का लक्ष्य होने से निद्रा-मोक्षण को उत्तरगुण कार्यों में बताया गया है। इससे संयम के कार्यों में जागृति बढ़ती है। आगम में मुनियों के लिए निद्रा को भी जागरण बताया गया है।
जंणेइ जया रति, णक्खतं तम्मि णहपउन्माए। संपत्ते विरमेज्जा, सज्झायं पओसकालम्मि॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - णेई - पूरी करता है, णक्यतं - नक्षत्र, णहयउन्माए - आकाश के चौथे भाग में, संपत्ते - आ जाने पर, पोसकालम्मि - प्रदोषकाल में।
भावार्थ - जब जो नक्षत्र रात्रि को समाप्त करता है अर्थात् जो नक्षत्र सारी रात उदित रह कर सूर्योदय के समय अस्त होता है। उस नक्षत्र के आकाश के चौथे भाग में प्राप्त होने पर प्रदोष काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जावे।
विवेचन - जिस काल में जो-जो नक्षत्र सारी रात तक उदित रहते हों, वे नक्षत्र जब
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