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यज्ञीय - उपसंहार
विरक्ति, दीक्षा और सिद्धि
एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अंतिए ।
अणगारस्स णिक्खतो, धम्मं सुच्चा अणुत्तरं ॥ ४४ ॥
कठिन शब्दार्थ - अंतिए - समीप, णिक्खतो - निष्क्रमण किया, अणुत्तरं - अनुत्तर
श्रेष्ठ।
भावार्थ - इस प्रकार अनुत्तर- श्रेष्ठ धर्म सुन कर उस विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष मुनि के समीप निष्क्रमण किया अर्थात् दीक्षा धारण कर ली।
उपसंहार
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खवित्ता पुष्वकम्माई, संजमेण तवेण य ।
जयघोस विजयघसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ।। ४५ ।। त्तिबेमि ॥
कठिन शब्दार्थ - खवित्ता संजमेण संयम से, तवेण तप से भावार्थ - संयम और तप से पूर्वकृत कर्मों का क्षय (नाश) कर के जयघोष और विजयघोष दोनों मुनि अनुत्तर- प्रधान सिद्धि गति को प्राप्त हो गये। ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - जयघोषमुनि के तात्त्विक, सारगर्भित, वैराग्योत्पादक उपदेश को सुन कर विजयघोष ने मुनि दीक्षा अंगीकार करली। संचित कर्मों का क्षय करने में तप और संयम ही प्रधान कारण हैं। यह जान कर दोनों भाई मुनियों ने निर्मल तप संयम की अराधना की और सर्व कर्म क्षय कर सिद्धि गति प्राप्त की।
॥ यज्ञीय नामक पच्चीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥
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नष्ट करके, पुष्वकम्माई - पूर्व संचित कम सिद्धि-सिद्धि को, पत्ता प्राप्त की।
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