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यज्ञीय - विजयघोष द्वारा कृतज्ञता प्रकाशन और गुणगान 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - गुणों से ही व्यक्ति ब्राह्मण, श्रमण, मुनि या तपस्वी हो सकता है। केवल जन्म, वेष या बाह्य क्रियाकाण्डों से लक्ष्य सिद्ध नहीं होता है। विजयघोष द्वारा कृतज्ञता प्रकाशन और गुणगान एवं तु संसए छिण्णे, विजयघोसे य माहणे। समुदाय तओ तं तु, जयघोसं महामुणिं॥३६॥
कठिन शब्दार्थ - संसए - संशय, छिण्णे - मिट जाने पर, समुदाय - सम्यक् रूप से, महामुणिं - महामुनि।
भावार्थ - इस प्रकार संशय छिन्न-नष्ट हो जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने जयघोष मुनि की वाणी सुन कर और हृदय में धारण कर यह जान लिया कि यह मेरा संसारावस्था का भाई जयघोष ही महामुनि है।
विवेचन - जयघोष मुनि ने जब अपना वक्तव्य समाप्त किया, तब विजयघोष ब्राह्मण ने उनकी वाणी और आकृति से उनको पहचान लिया अर्थात् यह मेरा भ्राता ही है, इस प्रकार उसको निश्चय हो गया। वास्तव में शरीर की आकृति, वाणी और सहवास-वार्तालाप आदि से पूर्व विस्मृत पदार्थों की स्मृति हो ही जाया करती है।
तुढे य विजयघोसे, इणमुदाहु कयंजली। ... माहणत्तं जहाभूयं, सुट्ठ मे उवदंसियं॥३७॥
कठिन शब्दार्थ . - तुट्टे - संतुष्ट, इणमुदाहु - इस प्रकार कहा, कयंजली - हाथ जोड़ कर, माहणत्तं - ब्राह्मणत्व का, जहाभूयं - यथाभूत - यथार्थ, सुठु - अच्छा, उवदंसियं - उपदर्शन कराया।
भावार्थ - विजयघोष प्रसन्न हुआ और हाथ जोड़ कर इस प्रकार कहने लगा कि हे मुने! यथाभूत-वास्तविक ब्राह्मणत्व का स्वरूप आपने मुझे भली प्रकार उपदर्शित-समझाया है।
विवेचन - जब विजयघोष ने जान लिया कि 'ये मुनिराज तो मेरे पूर्वाश्रम के भाई हैं', तब उसको बड़ी प्रसन्नता हुई और हाथ जोड़कर जयघोष मुनि से कहने लगा कि - 'हे भगवन्! आपने ब्राह्मणत्व के यथावत् स्वरूप को बहुत ही अच्छी तरह से प्रदर्शित किया है।' तात्पर्य यह है कि आपने ब्राह्मण के जो लक्षण वर्णन किये हैं, वास्तव में वही यथार्थ हैं। अर्थात् इन
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