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उत्तराध्ययन सूत्र - पच्चीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
क्षत्रिय - 'क्षतात् त्रायते इति क्षत्रियः' अर्थात् जो प्राणियों की रक्षा करे और उनके दुःख को दूर करे उसे क्षत्रिय कहते हैं जैसा कि - कहा है - 'क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः, क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः।'
वैश्य - 'वैशं व्यापारकरोति इति वैश्यः' अर्थात् जो व्यापार करता है उन्हें वेश्य कहते हैं। जिस देश का व्यापार बढ़ा चढ़ा एवं उन्नत होता है वह देश भी सब देशों से सब दृष्टि से बड़ा चढ़ा और उन्नत होता है।
शूद्र - 'शुचं शोकं अशुचिं च द्रवति दूरीकरोति इति शुद्रः' अर्थात् जो शोक एवं अशुचि को दूर कर स्थान को पवित्र करता है उसे शुद्र कहते हैं। यह कर्म की अपेक्षा चार वर्ण की व्याख्या है। नीति चार प्रकार की कही गई है - गृहस्थनीति, लोकनीति, राजनीति और धर्मनीति। सामाजिक दृष्टि से लोकनीति का महत्त्व है। अपने अपने वर्ण वाला अपने अपने वर्ण में ही कन्या आदि का लेन-देन करे इससे सामाजिक व्यवस्था शुद्ध बनी रहती है वर्ण संकरता नहीं होती। जाति सम्पन्नता (मातृपक्ष की निर्मलता) और कुल सम्पन्नता (पितृपक्ष की निर्मलता) बनी रहती है।
एए पाउकरे बुद्धे, जेहिं होइ सिणायओ। सव्वकम्म-विणिमुक्कं, तं वयं बूम माहणं॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - पाउंकरे - प्रकट (प्ररूपित) किया है, बुद्धे - सर्वज्ञ अर्हत, सिणायओस्नातक-पूर्ण, सव्वकम्म विणिमुक्कं - सर्व कर्मों से मुक्त होता है।
भावार्थ - तीर्थंकर देवों ने ये उपरोक्त अहिंसादि गुण बतलाये हैं जिनका आचरण करने से मनुष्य क्रमशः स्नातक अर्थात् केवलज्ञानी हो जाता है और सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।
एवं गुणसमाउत्ता, जे भवंति दिउत्तमा। ते समत्था समुद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य॥३५॥
कठिन शब्दार्थ - गुणसमाउत्ता - गुण सम्पन्न, दिउत्तमा - द्विजोत्तम, समुद्धत्तुं - उद्धार करने में, परमप्पाणमेव - स्व और पर आत्मा का।
भावार्थ - इस प्रकार उपरोक्त गुणों से युक्त जो द्विजोत्तम् - उत्तम ब्राह्मण होते हैं वे अपनी और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं।
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