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________________ यज्ञीय - वेद और यज्ञ आत्मरक्षक नहीं अर्थ पंच परमेष्ठी का प्रथम अक्षर लेकर ओंकार शब्द बना है । परन्तु यह कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध है क्योंकि प्रथम अक्षर तो ये हैं अ, सि, आ, उ, सा। इनमें से सि और सा दोनों अक्षर ओम में आये ही नहीं है। सिद्ध के लिए अशरीरी और साधु के लिए मुनि शब्द लेकर 'ओम्' शब्द बनाने की बात कहना अत्यन्त अनुचित है। क्योंकि इस प्रकार नमस्कार सूत्र को अपना इच्छानुसार तोड़ मरोड़ना अनन्त तीर्थंकरों की आशातना करना है। अनादि काल से यह नमस्कार सूत्र इसी रूप में है इनको बदलना अनन्त तीर्थंकरों की आशातना करना है । इसलिए तीर्थंकरों के नाम के पहले ओम् शब्द लगाना उचित नहीं है। इस गाथा में ओंकार शब्द आया है वह मंडन रूप नहीं है किन्तु खंडन रूप है कि केवल ओम् ओम् रटने से कोई ब्राह्मण नहीं होता । समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो । - णाणेण य मुणी होइ, तवेण होइ तावसो ॥ ३२॥ समता रखने से, बंभचेरेण - कठिन शब्दार्थ - समयाए . सम्यग् ज्ञान से, तवेण तप से । भावार्थ समताभाव धारण करने से श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण होता है। ज्ञान की आराधना करने से मुनि होता है और तुप का सेवन करने से तपस्वी होता है। क्षुद्र, हवइ - होता है। - कम्णा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । इस्सो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥ ३३॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मुणा कर्म से, खत्तिओ Jain Education International - - · - १०१ - भावार्थ - कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से शूद्र होता है। विवेचन ब्रह्मचर्य पालन से, णाणेण 'ब्रह्म आत्मानं वेत्ति जानाति इति ब्राह्मणः' अर्थात् ब्रह्म आत्मा के स्वरूप को जानता है और आत्म-कल्याण के लिए प्रवृत्ति करता है उसको ब्राह्मण ब्राह्मण कहते हैं। For Personal & Private Use Only क्षत्रिय, वइस्सो - वैश्य, सुद्दो - - www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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