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उत्तराध्ययन सूत्र
उपरोक्त दो गाथाओं में चारों प्रश्नों का उत्तर आ गया है। अजाणगा जण्णवाई, विज्जा - माहणसंपया ।
मूढा सज्झाय तवसा, भासच्छण्णा इवग्गिणो ॥ १८ ॥
कठिन शब्दार्थ. अजाणगा अनभिज्ञ, विज्जा माहणसंपया - विद्या और ब्राह्मण
स्वाध्याय
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पच्चीसवाँ अध्ययन
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की सम्पदा से, जण्णवाई - यज्ञवादी, मूढा - मूढ ( अज्ञानी), संज्झाय तवसा और तप से, भासच्छण्णा इवग्गिणो - राख से ढकी हुई अग्नि की तरह ।
भावार्थ - ब्रह्म विद्या रूपी ब्राह्मणों की सम्पत्ति को नहीं जानने वाले स्वाध्याय और तप के विषय में मूढ (अज्ञानी) यज्ञ करने वाले ये ब्राह्मण राख से दबी हुई अग्नि के समान हैं। अर्थात् ये ऊपर से शान्त दिखाई देते हैं किन्तु इनका हृदय कषायों से जल रहा है।
विवेचन - भस्म से ढकी हुई अग्नि जैसे बाहर से तो शान्त दिखाई देती है किंतु अंदर से उष्ण होती है वैसे ही ये ब्राह्मण बाहर से तो स्वाध्याय - वेदों का अध्ययन तथा तप करते हुए शांत - दांत दिखाई देते हैं किंतु इनके अंतर में कषायों की अग्नि जल रही है अतः वे विद्या ( आध्यात्मिक विद्या) और संपदा (अकिंचन भाव) से अनभिज्ञ हैं ।
स्व-पर आत्मा का उद्धार करने में कौन समर्थ है ? इस पांचवें प्रश्न के उत्तर में मुनि के कथन का अभिप्राय यह है कि जिन ब्राह्मणों को आप स्व-पर समुद्धारक समझ रहे हैं उनमें ब्राह्मणोचित आध्यात्मिक गुणों का अभाव है।
किसी-किसी प्रति में 'मूढा' के स्थान पर 'गूढा' पाठ मिलता है। इसका अर्थ होता है 'स्वाध्याय और तप से गूढ़' (छिपे हुए - अनभिज्ञ ) ।
अतः आगे की गाथाओं में जयघोष मुनि ब्राह्मण का सच्चा स्वरूप प्रकट करते हैं -
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ब्राह्मण का लक्षण
जो लोए बंभणो वुत्तों, अग्गीव महिओ जहा । सया कुसल - संदिट्ठे, तं वयं बूम माहणं ॥ १६ ॥
कठिन शब्दार्थ - बंभणो - ब्राह्मण, वुत्तो कहा गया है, अग्गीव जहा अग्नि के समान, महिओ - माहित - पूजनीय, कुसल संदिट्ठ कुशल सन्दिष्ट - कुशल पुरुषों ( तीर्थंकरों के ) द्वारा कहा हुआ, बूम - कहते हैं।
* पाठान्तर - गूढा
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