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यज्ञीय - जयघोष मुनि का समाधान 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
यज्ञों का मुख यज्ञार्थी बताते हुए मुनि ने स्पष्ट किया कि इन्द्रिय और मन को असंयम से हटा कर संयम में केन्द्रित करने वाला आत्मसाधक ही भावयज्ञ का अनुष्ठान करने वाला सच्चा यज्ञार्थी होता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा को 'यज्ञ' बताया गया है। अतः अहिंसा का पूर्णतया पालन करने वाला संयमी ही यज्ञार्थी है।
इसके अतिरिक्त निघंटु-वैदिक कोष में यज्ञ का नाम 'वेदसा' भी लिखा है। अतः यज्ञ का मुख - उपाय अहिंसा आदि कर्म ही है। ____ नक्षत्रों में चन्द्रमा की प्रधानता होने के कारण नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा कहा है।
इसके अतिरिक्त व्यापार विधि में भी चन्द्र संवत्सर और चन्द्र मास की ही प्रधानता मानी जाती है। इसी तरह तिथियों की गणना भी चंद्रमा के ही अधीन है। अतः चंद्रमा नक्षत्रों का मुख है।
काश्यप-ऋषभदेव ही इस अवसर्पिणी के सर्वप्रथम धर्मोपदेष्टा थे अतः धर्मों का मुख काश्यप कहा गया है। ____ वैदिक धर्म के शास्त्रों (आरण्यक और ब्रह्माण्ड पुराण) में भी ऋषभदेव को ही धर्म की आदि करने वाला माना है। इससे सिद्ध है कि सब धर्मों में प्रधान काश्यप - श्री ऋषभदेव ही हैं। अतः जिस प्रकार का अग्निहोत्र आदि कर्म का स्वरूप तुमने माना हुआ है, वह समीचीन नहीं है। इसका यथार्थ भाव तो जो ऊपर बताया गया है, वही है।
जहा चंदं गहाइया, चिटुंति पंजलीउडा। वंदमाणा णमंसंता, उत्तमं मणहारिणो॥१७॥
कठिन शब्दार्थ - गहाइया - ग्रह आदि, पंजलीउडा - हाथ जोड़े हुए, वंदमाणा णमंसंता - वन्दना-नमस्कार करते हुए, मणहारिणो - मनोहर। .
. भावार्थ - जिस प्रकार ग्रह-नक्षत्र आदि चन्द्रमा के सम्मुख हाथ जोड़ कर वंदन और स्तुति करते हुए, नमस्कार करते हुए तथा मन को हरण करते हुए अति विनम्र भाव से खड़े रहते हैं उसी प्रकार इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सभी देव और मनुष्य तीर्थंकर भगवान् को विनम्रभाव से नमस्कार करते हैं।
'विवेचन - प्रस्तुत गाथा में चन्द्रमा की उपमा से भगवान् ऋषभदेव की महनीयता एवं वंदनीयता सिद्ध की गई है। जैसे ग्रह, नक्षत्र और तारागणों का प्रमुख एवं स्वामी होने से चन्द्रमा उनके द्वारा पूजनीय और वंदनीय है उसी प्रकार भगवान् ऋषभदेव भी धर्मों में प्रमुख-आदि कारण होने से देवेन्द्र और मनुष्यों आदि के पूजनीय एवं वंदनीय है।
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