________________
६२
उत्तराध्ययन सूत्र - पच्चीसवाँ अध्ययन 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
विवेचन - जयघोष मुनि के आक्षेपप्रधान पांचों प्रश्नों के उत्तर देने की अपने में शक्ति न देखकर विजयघोष ने अपने मन में विचार किया कि इस यज्ञ मंडप में उपस्थित हुए मुझ सहित अनेक प्रकाण्ड विद्वानों के समक्ष निर्भय होकर जिस मुनि ने उक्त प्रकार के आक्षेप प्रधान प्रश्न किये हैं, वह अवश्य ही वेदों के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान रखने वाला कोई महान् भिक्षु है। ऐसे धारणाशील विद्वान् मुनियों का संयोग कभी भाग्य से ही होता है। अतः इनके किये हुए प्रश्नों के उत्तर भी विनय पूर्वक इन्हीं से पूछने चाहिए और वे उत्तर भी वास्तविक होंगे, जिनमें कि फिर किसी प्रकार के संदेह को भी अवकाश नहीं रहेगा। इसलिए विजयघोष ने अपनी परिषद्विद्वत्मण्डली - के सहित बड़े विनय के साथ हाथ जोड़कर जयघोष मुनि से पूछने की इच्छा प्रकट की। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रतिपक्षी होने पर भी, ज्ञान प्राप्ति के लिए तो विनय को अवश्य अंगीकार करना चाहिये।
अग्गिहुत्तमुहा वेया, जण्णट्ठी वेयसां मुहं। णक्खत्ताण मुहं चंदो, धम्माणं कासवो मुहं॥१६॥
कठिन शब्दार्थ - अग्गिहुत्तमुहा - मुख अग्निहोत्र है, चन्दो - चन्द्रमा, कासवो - काश्यप-ऋषभदेव।
भावार्थ - मुनि कहने लगे - वेद अग्निहोत्र की मुख्यता वाले हैं, अर्थात् वेदों में अग्निहोत्र प्रधान है। धर्मध्यान रूपी अग्नि में सद्भावना की आहुति दे कर कर्म रूप ईन्धन का जलाना, भाव-अग्निहोत्र है। यज्ञार्थी अर्थात् अशुभ-कर्मों का नाश करने के लिए भाव-यज्ञ करने वाला यज्ञार्थी वेदस्-यज्ञों का मुख्य है। नक्षत्रों का चन्द्रमा मुख्य है और धर्म का काश्यप गोत्रीय भगवान् ऋषभदेव प्रधान हैं, क्योंकि युग की आदि में अर्थात् इस अवसर्पिणी काल में सर्वप्रथम धर्म की प्ररूपणा इन्होंने की. थी।
विवेचन - अग्नि में आहुति देना या हवन करना, अग्निहोत्र कहलाता है। यह अर्थ तो विजयघोष को ज्ञात ही था किंतु अग्निहोत्र वेदों का मुख माना गया है। मुनि द्वारा इसकी व्याख्या यों की गई है - वेद का अर्थ ज्ञान है। जब ज्ञान के द्वारा सर्व द्रव्यों को भलीभांति जान लिया आता है तब कर्म जन्य संसार चक्र से अपनी आत्मा को मुक्त करने के लिए तप, संयम रूप अग्नि के द्वारा कर्म रूप ईंधन को जला कर सद्भावना रूप आहुति की आवश्यकता . रहती है। तप, संयम, अहिंसा आदि रूप अध्यात्म भाव ही अग्निहोत्र है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org