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यज्ञीय - जयघोष मुनि का समाधान
विवेचन
प्रस्तुत ग्यारहवीं गाथा में 'मुख (मुंह)' शब्द का चार स्थानों पर प्रयोग हुआ है। इसमें से प्रथम और तृतीय चरण में प्रयुक्त मुख शब्द का अर्थ- 'प्रधान' एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण में प्रयुक्त मुख शब्द का अर्थ 'उपाय' है।
विजयघोष की जिज्ञासा
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तस्सऽक्खेवपमोक्खं च, अचयंतो तहिं दिओ । सपरिसो पंजलीहोउं, पुच्छइ तं महामुणिं ॥ १३॥
कठिन शब्दार्थ तस्स - उसके, अक्खेव - आक्षेपों के, पमोक्खं - प्रमोक्ष (उत्तर) में, अचयंतो - असमर्थ, दिओ - द्विज, सपरिसो - परिषद् सहित, पंजलीहोउं - हाथ जोड़ कर, पुच्छड़ - पूछने लगा ।
भावार्थ - मुनि के प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ द्विज, वह विजयघोष ब्राह्मण उस यज्ञशाला में परिषद् सहित ( अन्य समस्त ब्राह्मणों के साथ) हाथ जोड़ कर उस महामुनि से पूछने लगा ।
जयघोष मुनि का समाधान
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वेयाणं च मुहं बूहिं, बूहि जण्णाण जं मुहं । णक्खत्ताण मुहं बूहि, बूहि धम्माण वा मुहं ॥ १४ ॥ जे समत्था समुंद्धत्तुं, परमप्पाणमेव य ।
एयं मे संसयं सव्वं, साहू ! कहसु पुच्छिओ ।। १५ ।।
कठिन शब्दार्थ - बूहि - कहो, मुहं - मुख (मुख्य उपादेय वस्तु), संसयं संशय, कहसु - कहिये ।
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भावार्थ - हे मुने! वेदों का मुख (प्रधान) कौन है उसे बताओ और यज्ञों का जो मुख है उसे बताओ तथा नक्षत्रों का मुख कौन है उसे बताओ और धर्मों का मुख बताओ। जो अपनी और दूसरों की आत्मा का उद्धार करने में समर्थ हैं, वे कौन हैं? मेरे मन में ये सभी संशय हैं। इसलिए हे साधो ! मैं आप से पूछता हूँ आप कृपा कर के कहिए ।
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