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________________ ८२ संरंभ-समारंभे, आरंभे य तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, णियत्तेज्ज जयं जई ॥ २३ ॥ भावार्थ संरंभ में, समारम्भ में और आरम्भ में प्रवृत्ति करते हुए वचन को यति - साधु यतापूर्वक हटा लेवे । विवेचन - दूसरों को मारने में समर्थ ऐसी क्षुद्र विद्या गुणने के संकल्प को सूचित करने वाला शब्द बोलना वचन - संरंभ है। दूसरों को पीड़ा करने वाला मंत्र गुणने को उद्यत होना वचन-समारंभ है। प्राणियों के प्राणों का अत्यन्त क्लेशपूर्वक नाश करने में समर्थ मंत्रादि गुणना वचन आरंभ है। संरंभ आदि में प्रवृत्ति करने वाले वचन को साधु यतना से रोके । कायगुप्ति का स्वरूप उत्तराध्ययन सूत्र - चौबीसवाँ अध्ययन - ठाणे णिसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे । उल्लंघणे पल्लंघणे, इंदियाण य जुंजणे ॥ २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणे - खड़े रहने में, णिसीयणे - बैठने में, तुयट्टणे - करवट बदलने या लेटने में, उल्लंघणे - उल्लंघन - गड्डे आदि को लांघने में तथा पल्लंघणे - प्रलंघन - सामान्यतः चलने में, इंदियाण - इन्द्रियों के, जुंजणे - प्रयोग में । भावार्थ - खड़े रहने में, बैठने में, सोने में तथा किसी कारण ऊंची भूमि तथा खड्डे आदि के उल्लंघन में, बार-बार उल्लंघन करने में, सीधे चलने में और इन्द्रियों के शब्दादि में प्रवृत्ति करने में साधु यतनापूर्वक काय - गुप्ति करे । संरंभ-समारंभे, आरंभे य तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु, णियत्तेज जयं जई ॥ २५ ॥ भावार्थ - संरम्भ में, समारंभ में और आरम्भ में प्रवृत्ति करती हुई काया को साधु यतनापूर्वक हटा लेवे । Jain Education International विवेचन - किसी प्राणी को लकड़ी आदि से पीटने के लिए तैयार होना काय संरम्भ है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए लकड़ी आदि का प्रहार करना काय - समारम्भ है। किसी प्राणी का वध करने के लिए प्रवृत्ति करना काय - आरंभ हैं। इन कार्यों में प्रवृत्ति होते हुए अपने शरीर (काया) को साधु रोके । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004181
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages450
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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