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संरंभ-समारंभे, आरंभे य तहेव य ।
वयं पवत्तमाणं तु, णियत्तेज्ज जयं जई ॥ २३ ॥
भावार्थ संरंभ में, समारम्भ में और आरम्भ में प्रवृत्ति करते हुए वचन को यति - साधु यतापूर्वक हटा लेवे ।
विवेचन - दूसरों को मारने में समर्थ ऐसी क्षुद्र विद्या गुणने के संकल्प को सूचित करने वाला शब्द बोलना वचन - संरंभ है। दूसरों को पीड़ा करने वाला मंत्र गुणने को उद्यत होना वचन-समारंभ है। प्राणियों के प्राणों का अत्यन्त क्लेशपूर्वक नाश करने में समर्थ मंत्रादि गुणना वचन आरंभ है। संरंभ आदि में प्रवृत्ति करने वाले वचन को साधु यतना से रोके ।
कायगुप्ति का स्वरूप
उत्तराध्ययन सूत्र - चौबीसवाँ अध्ययन
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ठाणे णिसीयणे चेव, तहेव य तुयट्टणे ।
उल्लंघणे पल्लंघणे, इंदियाण य जुंजणे ॥ २४ ॥
कठिन शब्दार्थ - ठाणे - खड़े रहने में, णिसीयणे - बैठने में, तुयट्टणे - करवट बदलने या लेटने में, उल्लंघणे - उल्लंघन - गड्डे आदि को लांघने में तथा पल्लंघणे - प्रलंघन - सामान्यतः चलने में, इंदियाण - इन्द्रियों के, जुंजणे - प्रयोग में ।
भावार्थ - खड़े रहने में, बैठने में, सोने में तथा किसी कारण ऊंची भूमि तथा खड्डे आदि के उल्लंघन में, बार-बार उल्लंघन करने में, सीधे चलने में और इन्द्रियों के शब्दादि में प्रवृत्ति करने में साधु यतनापूर्वक काय - गुप्ति करे ।
संरंभ-समारंभे, आरंभे य तहेव य ।
कायं पवत्तमाणं तु, णियत्तेज जयं जई ॥ २५ ॥
भावार्थ - संरम्भ में, समारंभ में और आरम्भ में प्रवृत्ति करती हुई काया को साधु यतनापूर्वक हटा लेवे ।
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विवेचन - किसी प्राणी को लकड़ी आदि से पीटने के लिए तैयार होना काय संरम्भ है। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए लकड़ी आदि का प्रहार करना काय - समारम्भ है। किसी प्राणी का वध करने के लिए प्रवृत्ति करना काय - आरंभ हैं। इन कार्यों में प्रवृत्ति होते हुए अपने शरीर (काया) को साधु रोके ।
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