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________________ - चतुरंगीय - चार परम अंग . ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ भावार्थ - इस संसार में प्राणी के लिए मनुष्य-जन्म, धर्मशास्त्र का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा और संयम में पराक्रम - आत्मशक्ति लगाना, इन चार प्रधान अंगों की प्राप्ति होना दुर्लभ है। विवेचन - दूसरे अध्ययन में परीषहों का वर्णन और उनके सहन करने का उपदेश दिया गया है। परीषहों को सहन करने की शक्ति मनुष्य में ही है किन्तु मनुष्य को उपर्युक्त चार अंगों की प्राप्ति होना अति कठिन है। अतः इस तीसरे अध्ययन में उन दुर्लभ चार अंगों का निरूपण किया गया है। इन चारों अंगों के निरूपण के कारण इस अध्ययन को 'चातुरंगीय अध्ययन' कहते हैं। इस संसार चक्र में भ्रमण करते हुए जीव को चारों अंगों का प्राप्त होना बहुत ही कठिन है, क्योंकि ये चारों ही अंग मोक्ष के साधनभूत होने से जीव के लिए बहुत ही उपकारी माने गये हैं - .. 1. मनुष्यत्व - यहाँ पर मनुष्यत्व का अर्थ 'मनुष्यभव (जन्म)' ही समझना चाहिये। 'मानवता' अर्थ नहीं समझना चाहिये। 'त्व (ता)' प्रत्यय उसी मूल शब्द के अर्थ को बताने के लिए ही यहाँ पर प्रयुक्त हुआ है। जैसे देव को देवता भी कहा जाता है। वैसे ही यहाँ पर भी समझना चाहिये। इसी अध्ययन की सातवीं, आठवीं गाथा में मनुष्य जन्म एवं मनुष्य संबंधी शरीर की प्राप्ति को ही दुर्लभ कहा है। अतः वास्तव में जीवों को मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होना . अत्यन्त दुर्लभ है। मानवता आदि का समावेश भी गौण रूप से इसमें समझ लेना चाहिए। प्रमुख रूप से तो मनुष्य जन्म को ही दुर्लभ समझना चाहिये। ..उत्तराध्ययन सूत्र के १०वें अध्ययन की चौथी गाथा के प्रथम चरण में शास्त्रकारों ने स्पष्ट रूप से कहा है -"दुल्लहे खलु माणुसे भवे" अर्थात् मनुष्य भव की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है। २. श्रुति - कदाचित् पुण्य योग से मनुष्यभव की प्राप्ति भी हो जाय परन्तु उसमें श्रुति 'जिन प्ररूपित' धर्म के श्रवण का संयोग मिलना तो और भी कठिन है क्योंकि धर्म का श्रवण किये बिना कर्त्तव्याकर्त्तव्य का पूर्णतया बोध नहीं हो सकता अतः श्रुति का प्राप्त होना मनुष्यभव से भी अधिक आवश्यक है। ३. श्रद्धा - कदाचित् श्रुति की प्राप्ति भी किसी पुण्य के विशेष उदय से हो जाए परन्तु उसमें श्रद्धा का प्राप्त होना तो और भी कठिनतर है। बिना श्रद्धा के, बिना दृढ़तर विश्वास के सुना हुआ धर्म शास्त्र भी ऊषर भूमि में बोए हुए बीज की तरह निष्फल प्रायः हो जाता है और हेयोपादेय के ज्ञान से भी श्रद्धा शून्य हृदय खाली रह जाता है. अतः मनुष्यभव और श्रुति के साथ श्रद्धा का होना बहुत ही आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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