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चाउरंगीय णामं तइयं अज्झयणं
चतरंगीय नामक तीसरा अध्ययन .उत्थानिका - चतुरंगीय नामक इस तृतीय अध्ययन में १. मनुष्यभव २. सद्धर्म श्रवण ३. सद्धर्मश्रद्धा और ४. संयम में पराक्रम - इन चारों अंगों की दुलर्भता का क्रमशः प्रतिपादन किया गया है। सर्वप्रथम मनुष्य जन्म की दुलर्भता का प्रतिपादन छह गाथाओं में किया गया है। मानव जीवन अत्यंत पुण्योदय से प्राप्त होता है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने 'दुल्लहे खलु माणुसे भवे' कह कर मानव जीवन की दुर्लभता बताई है। अन्य मतावलम्बियों ने भी मानव भव दुर्लभ कहा है। मानव जीवन की महत्ता का कारण यह है कि इस भव में वह अपने जीवन को सद्गुणों से चमका कर मोक्ष प्राप्ति का पुरुषार्थ कर सकता है। ___ जीवों को मानव तन (भव) मिलना भी अत्यन्त कठिन है। उस मानव भव के साथ सद्धर्म का श्रवण एवं सद्धर्म पर श्रद्धा होना तो और भी अत्यधिक कठिन है। संयम में पराक्रम करना तो इन तीनों बोलों से भी बहुत अधिक कठिन है। - जब तब साधक की श्रद्धा समीचीन एवं सुस्थित नहीं होती तब तक साधना पथ पर उसके कदम दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ सकते हैं इसलिए श्रद्धा पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही धर्मवण की भी प्रेरणा दी गई है। धर्म श्रवण से ही जीवादि तत्त्वों का सम्यक् ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञान होने पर ही साधक पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। तीसरे अध्ययन की प्रथम गाथा इस प्रकार हैं -
चार परम अंग चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥१॥
कठिन शब्दार्थ - चत्तारि - चार, परमंगाणि - प्रधान अंगों की, दुल्लहाणीए - दुर्लभ, जंतुणो - प्राणी के लिए, माणुसत्तं - मनुष्य जन्म, सुई - श्रुति - धर्म शास्त्र का श्रवण, सद्धा - श्रद्धा, संजमम्मि - संयम में, वीरियं - वीर्य (पराक्रम)।
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