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उत्तराध्ययन सूत्र - तीसरा अध्ययन ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★
४. संयम में पुरुषार्थ - माना कि मनुष्यभव और श्रुति के साथ पुण्य संयोग से श्रद्धा की भी प्राप्ति हो गई किन्तु धर्म शास्त्रों की शिक्षा के अनुसार यदि संयम में पुरुषार्थ न हुआ तो वह श्रद्धा भी किसी काम की नहीं, अतः संयम में वीर्य-पुरुषार्थ का होना और भी दुर्लभ है।
सारांश यह है कि संसार चक्र में भ्रमण करते हुए इस जीव को बड़े ही पुण्य के प्रभाव से इन उपर्युक्त चारों अंगों की प्राप्ति होती है। अतः मोक्ष के साधनभूत इन चारों अंगों को प्राप्त करके मनुष्य को अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि इन चारों अंगों की प्राप्ति बार-बार नहीं होती। ये तो बड़े ही दुर्लभ हैं। इनका लाभ तो किसी निकट भवी भाग्यशाली पुरुष को ही उसके शुभतर पुण्योदय से हो सकता है। ___ अब सूत्रकार इन चारों अंगों का नाम निर्देश करते हुए इनमें से प्रथम मनुष्य जन्म की दुर्लभता के विषय में कहते हैं। यथा -
मनुष्य जन्म की दुर्लभता समावण्णाण संसारे, णाणागोत्तासु जाइसु। कम्मा णाणाविहा कटु, पुढो विस्संभिया पया॥२॥
कठिन शब्दार्थ - समावण्णाण - प्राप्त हुए, संसारे - संसार में, णाणागोत्तासु - नाना .. प्रकार के गोत्रों में, जाइसु - जातियों में, कम्मा - कर्म, णाणाविहा - नाना प्रकार के, कटु - करके, पुढो - पृथक्-पृथक्, विस्सं - जगत् (विश्व) को, भया - भर दिया, पया - जीव।
भावार्थ - इस संसार में जीव अनेक प्रकार के कर्म कर के विविध गोत्र वाली जातियों में प्राप्त हुए हैं और वे एक-एक कर के सारे विश्वर में व्याप्त हैं-कभी कहीं, कभी कहीं उत्पन्न हो कर सारे लोक में जन्म-मरण किये हैं।
विवेचन - इस अनादि संसार चक्र में जीव नाना प्रकार के त्रस आदि गोत्रों और एकेन्द्रिय आदि जातियों में प्राप्त हुए हैं। इतना ही नहीं किन्तु एक-एक जीव ने ज्ञानावरणीय आदि नाना प्रकार के कर्मों के प्रभाव से जन्म मरण के द्वारा इस सारे विश्व को भर रखा है अर्थात् इस असंख्यात योजन प्रमाण लोक में ऐसा कोई आकाश प्रदेश नहीं है जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो।
एगया देवलोएसु, णरएसु वि एगया। एगया आसुरे काये, अहाकम्मेहिं गच्छइ॥३॥
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