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परीषह - परीषहों का स्वरूप - तृण स्पर्श परीषह
४७ ************************************************************** कर्म का फल जान कर दीनता रहित हो कर अपनी बुद्धि को स्थिर करे और रोगावस्था में रोग
से स्पृष्ट होने पर समभावपूर्वक सहन करे। . विवेचन - असाता वेदनीय कर्म के उदय से रोग ग्रस्त हो जाने पर मुनि दीन न बने और रोग जनित कष्टों को समभाव से सहन करे।
तेगिच्छं णाभिणंदिजा, संचिक्खत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं, ज ण कुज्जा ण कारवे॥३३॥
कठिन शब्दार्थ - तेगिच्छं - चिकित्सा की, णाभिणंदिज्जा - अभिनंदन (प्रशंसा) न करे, संचिक्ख - जान कर, सामण्णं - श्रामण्य - साधुता, ण कारवे - न कराए।
भावार्थ - आत्मशोधक मुनि चिकित्सा की अनुमोदना भी नहीं करे और रोग को अपने किये हुए कर्मों का फल जान कर समाधि पूर्वक सहन करे। जो रोग की चिकित्सा न तो स्वयं करता है और न दूसरे से कराता है तथा करते हुए को भला भी नहीं समझता है, इसी में उस साधु की सच्ची साधुता है। _ विवेचन - मुनि भयंकर रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे और न कराए। यह कथन जिनकल्पी तथा अभिग्रहधारी साधु की अपेक्षा से है। स्थविरकल्पी के लिए सावध चिकित्सा का निषेध है, निरवद्य चिकित्सा का नहीं।
..... १७ तृण स्पर्श परीवह अचेलगस्स लूहस्स, संजयस्स तवस्सिणो। - तणेसु सयमाणस्स, हुजा गाय विराहणा॥३४॥
कठिन शब्दार्थ - अचेलगस्स - अचेलक - वस्त्र रहित, लूहस्स - रूक्ष शरीर वाले, संजयस्स - संयमी, तवस्सिणो - तपस्वी मुनि को, तणेसु - तृणों पर, सयमाणस्स - सोते हुए, हुजा - होती है, गाय विराहणा - शरीर में विराधना (पीड़ा)। ____ भावार्थ - वस्त्र-रहित रूक्ष शरीर वाले संयमी तपस्वी मुनि को तृणों पर सोते हुए शरीर में पीड़ा होती है।
- विवेचन - तृण शब्द से सूखा घास, दर्भ, तृण, कंकड़ कांटे आदि जितने भी चुभने वाले पदार्थ हैं उन सब का ग्रहण करना चाहिये। ऐसे तृणादि पर सोने-बैठने लेटने आदि से चुभने,
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