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परीषह - परीषहों का स्वरूप
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करता हुआ चिंतन करे कि यह मेरे शरीर को ही मारता है, मेरी आत्मा या आत्म-धर्म का हनन तो यह कर नहीं सकता क्योंकि आत्मा और आत्म-धर्म दोनों शाश्वत, अमर, अमूर्त है। इस प्रकार जो साधक विचार करता है वही वध परीषह पर विजय पाता है।
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याचना परीषह
१४. याचना परीषह दुक्करं खलु भो! णिच्चं, अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वं से जाइयं होइ, णत्थिं किंचिं अजाइयं ॥ २८ ॥
कठिन शब्दार्थ - दुक्करं - दुष्कर, णिच्चं - नित्य-सदा, जाइयं - मांगने पर, अजाइयंअयाचित - बिना मांगे।
भावार्थ
गुरु महाराज कहते हैं कि हे शिष्य ! घरबार के त्यागी, भिक्षा से निर्वाह करने वाले साधु का जीवन निश्चय ही बड़ा कठिन है, क्योंकि उसे सभी आहार- उपकरण आदि वस्तु सदा मांगने पर ही मिलती है। बिना मांगे कोई भी वस्तु नहीं मिलती ।
'गोयरग्गपविट्टस्स, पाणी णो सुप्पसारए ।
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'सेओ अगारवासुत्ति', इइ भिक्खू ण चिंतए ॥ २६ ॥
कठिन शब्दार्थ - गोयरग्गपविट्ठस्स - गोचरी के लिए प्रविष्ट, पाणी सुप्पसारए - पसारना सहज नहीं है, सेओ श्रेष्ठ, अगारवासुत्ति - गृहवास ही ।
भावार्थ - गोचरी के लिए गये हुए साधु का हाथ, भिक्षा मांगने के लिए सहज ही नहीं फैलता इससे तो, गृहवास ही अच्छा है इस प्रकार साधु विचार भी न लावे ।
विवेचन - याचना करने वाले को दूसरों के सामने हाथ फैलाना - 'मुझे दो' इस प्रकार कहना सरल नहीं है। अतः साधु ऐसा नहीं सोचे कि इससे तो गृहवास ही श्रेयस्कर है। १५ अलाभ परीषह
परेसु घास - मेसिज्जा, भोयणे परिणिट्ठिए । लद्धे पिंडे अलद्धे वा, णाणुतप्पेज्ज संजए ॥ ३० ॥
* पाठान्तर - पंडिए - अर्थात् बुद्धिमान्
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हाथ,
णो
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