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उत्तराध्ययन सूत्र पहला अध्ययन
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कठिन शब्दार्थ - देवगंधव्वमणुस्स - देव, गंधर्व और मनुष्य से, पूइए - पूजित, च - छोड़ कर, देहं - शरीर को, मलपंकपुव्वयं - मल पंक (रज-वीर्य) पूर्वक, सिद्धे - सिद्ध, सासए शाश्वत, देवे - देव, अप्परए अल्प कर्म रज वाला, महिड्डिए महान् ऋद्धि वाला, त्ति बेमि - ऐसा मैं कहता हूँ ।
भावार्थ - देव गन्धर्व और मनुष्य से पूजित वह विनीत शिष्य मलमूत्रादि से भरे हुए इस अपवित्र शरीर को छोड़ कर इसी जन्म में शाश्वत सिद्ध हो जाता है अथवा यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो महान् ऋद्धि वाला देव होता है।
त्ति बेमि श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू !
जैसा मैंने भगवान् महावीर स्वामी से सुना है, वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ।'
विवेचन
प्रस्तुत गाथा में विनय धर्म की फल श्रुति का वर्णन करते हुए उसके ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विशिष्ट फल का प्रतिपादन किया गया है। इस गाथा में प्रयुक्त
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'मलपंकपुव्वयं' शब्द के दो अर्थ १. आत्म शुद्धि का विघातक होने से पाप कर्म एक प्रकार का मल है और वही पंक है। इस शरीर की प्राप्ति का कारण कर्ममल होने से वह भावतः मलपंक पूर्वक है और २. इस शरीर की उत्पत्ति माता के रज और पिता के वीर्य से होती है, माता का रज मल है और पिता का वीर्य पंक है अतः यह देह द्रव्यतः भी मलपंक (रज वीर्य) पूर्वक है।
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त्ति बेमि में इति शब्द समाप्ति के अर्थ का बोधक है और ब्रवीमि का अर्थ हैं- मैं भगवान् एवं गणधरादि के उपदेश से ऐसा कहता हूँ अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से जो विनय का स्वरूप सुना है उसी प्रकार मैंने तुम को कहा है, इसमें मैंने अपनी निजी कल्पना से कुछ भी नहीं कहा है।
॥ इति विनयश्रुत नामक प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
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