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परिसहं णामं बीयं अज्झयणं
परीषह नामक दूसरा अध्ययन उत्थानिका - पहले अध्ययन में विनय धर्म का स्वरूप विस्तार पूर्वक निरूपण करने के बाद सूत्रकार द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र के द्वितीय अध्ययन में परीषह-जय के संबंध में चिंतन किया गया है। संयम साधना के पथ पर.कदम बढ़ाते समय विविध प्रकार के कष्ट आते हैं पर साधक उन कष्टों से घबराता नहीं है। वह तो उस झरने की तरह है जो वज्र चट्टानों को चीर कर आगे बढ़ता है। न उसके मार्ग को पत्थर रोक पाते हैं और न ही गहरे गर्त ही। वह तो अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता रहता है। पीछे लौटना उसके जीवन का लक्ष्य नहीं होता। · परीषह अर्थात् 'परीत्ति सर्व प्रकारेण सह्यते इति परिषहः'
चारों ओर से आने वाले कष्टों को समभाव पूर्वक सहन करना परीषह है। परीषह की परिभाषा करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र ६/८ में कहा है।
'मार्गाच्यवन निर्जरार्थ, परिषोढव्याः परीषहाः'
स्वीकृत मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्म निर्जरा के लिये जो कुछ सहा जाता है वह 'परीषह' है। उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २, समवायांग सूत्र समवाय २२ और तत्त्वार्थ सूत्र ६/- में परीषह की संख्या २२ बताई है। समवायांग सूत्र में परीषह के २२ भेद इस प्रकार कहे हैं -
१.. क्षुधा २. पिपासा ३. शीत ४. उष्ण ५. दंशमशक ६. अचेल ७. अरति ८. स्त्री ६. चर्या १०. निषद्या ११. शय्या १२. आक्रोश १३. वध १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण स्पर्श १८. जल्ल १६. सत्कार पुरस्कार २०. ज्ञान २१. दर्शन २२ प्रज्ञा।
समवायांग सूत्र के २२ वें समवाय में २२ परीषहों के नाम उपरोक्तानुसार है। उसमें १ से लेकर २१ तक के नामों में उत्तराध्ययन सूत्र के समान ही नाम दिये गये हैं। २२ वें परीषह का नाम 'अदर्शन परीषह' बताया गया है। ऐसा ही वर्णन तत्त्वार्थ सूत्र के हवें अध्याय के 6 वें सूत्र में भी मिलता है। दर्शन परीषह और अदर्शन परीषह दोनों का भावार्थ एक ही है। - परीषहों की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और वेदनीय कर्म हैं। ज्ञानावरणीय कर्म, प्रज्ञा और अज्ञान परीषहों का, अन्तराय कर्म अलाभ परीषह का, दर्शन मोहनीय दर्शन परीषह का और चारित्र मोहनीय अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना,
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