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________________ पापश्रमणीय - पापश्रमण का स्वरूप २९७ ******************aaaaaaaaaaaaaaaaa************************* वस्त्र को अथवा पात्र को कम्बल एवं सभी धर्मोपकरणों को इधर-उधर बिखेरे रखता है और पडिलेहणा में उपयोग नहीं रखता है, वह पापश्रमण कहलाता है। पडिलेहेइ पमत्ते, से किंचि हु णिसामिया। गुरु-परिभासए णिच्चं, पावसमणे त्ति वुच्चइ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - णिसामिया - सुनता हुआ, गुरुपरिभावए (गुरु परिभासए) - गुरुजनों का अपमान करता है। . भावार्थ - जो प्रमादी हो कर पडिलेहणा करता है और कुछ विकथा आदि सुनने में दत्तचित्त रहता है और इसीलिए पडिलेहणा (प्रतिलेखना) के विषय में उपयोग शून्य हो जाता है और गुरु महाराज द्वारा प्रेरणा करने पर सदैव गुरु के सामने बोलता है अथवा उनका तिरस्कार करता है या उनके साथ विवाद करता हुआ असभ्य वचन बोलता है कि 'आपने हमको पडिलेहणा करना इसी प्रकार सिखाया था अथवा हम भली प्रकार पडिलेहणा करना नहीं जानते तो आप स्वयं का लें' इस प्रकार जो बोलता है, वह पापश्रमण कहलाता है। बहुमाई पमुहरे, थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अवियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चइ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - बहुमाई - बहुमायी - अत्यंत माया युक्त, पमुहरे (पमुहरी) - प्रमुखर-वाचाल, थद्धे - स्तब्ध-ढीठ, लुद्धे - लुब्ध, अणिग्गहे - इन्द्रियों को वश न करने वाला, असंविभागी- समविभाग न करने वाला, अवियत्ते - प्रीति न करने वाला। . भावार्थ -- बहुत छल-कपट करने वाला, वाचाल (बहुत बोलने वाला), अभिमानी, आसक्ति रखने बाला, इन्द्रियों को वश में नहीं करने वाला, आहार का संविभाग न करने वाला, अप्रीतिकारी एवं सांथी साधुओं के साथ प्रेम वात्सल्य का व्यवहार न करने वाला, पापश्रमण कहलाता है। विवेचन - प्रस्तुत गाथा में बताया है कि जो साधु १. कपटी २. वाचाल ३. ढीठ ४. लोभी ५. अजितेन्द्रिय ६. असंविभागी - बिना विभाग किये एकाकी खाने वाला ७. गुरुजनों का तिरस्कार करने वाला होता है, वह पापश्रमण कहलाता है। ____असंविभागी की टीका करते हुए टीकाकार ने कहा है - "आत्मपोषकत्वेनैव सोऽविभागी" - जो सिर्फ अपने पोषण का ही ध्यान रखता है, वह असंविभागी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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