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ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान - प्रथम ब्रह्मचर्य समाधि स्थान-विविक्त.... २७५ ****************AAAAAAAAAAAAAAAAwakakkakka******************
भावार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी समाधान प्रस्तुत करते हैं - स्थविर भगवंतों के द्वारा ब्रह्मचर्य समाधि के ये निम्न दश स्थान बतलाए गए हैं जिन्हें सुनकर, जिनके अर्थ का निर्णय कर, भिक्षु संयम, संवर एवं समाधि में अधिकाधिक स्थिर हो कर मन, वचन और काया को संगुप्त करे, इन्द्रियों को वशीभूत करे, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखे तथा सदैव अप्रमत्त होकर विचरण करे। प्रथम ब्रह्मचर्य समाधि स्थान - विविक्त शयनासन सेवन
तंजहा - विवित्ताई सयणासणाई सेविता हवइ से णिग्गंथे। णो इत्थीपसुपंडग संसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से णिग्गंथे। तं कहमिति चे? आयरियाहणिग्गंथस्स खलु इत्थीपसुपंडग-संसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बंभयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपण्णत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खल णो णिग्गंथे इत्थीपसुपंडग-संसत्ताई सयणासणाई सेविज्जा॥१॥
कठिन शब्दार्थ - तंजहा - वे इस प्रकार हैं, विवित्ताई - विविक्त (एकान्तर), सयणासणाई - शयन और आसनों का, सेवित्ता - सेवन कर, हवइ - होता है, णिग्गंथे - निर्ग्रन्थ, इत्थी - स्त्री, पसु - पशु, पंडग - नपुंसक, संसत्ताई - संसक्त, तं - वह, कहं - कैसे, इति चे - यदि ऐसा कहा जाए, आयरियाह - आचार्य ने कहा, णिग्गंथस्स - निर्ग्रन्थ के, सेवमाणस्स - सेवन करने वाले के, बंभयारिस्स - ब्रह्मचारी के, बंभचेरे - ब्रह्मचर्य में, संका - शंका, वा - अथवा, कंखा - कांक्षा, विइगिच्छा - विचिकित्सा, समुप्पजिजा - समुत्पन्न होती है, भेदं - भेद-विनाश, लभेजा - होने की, उम्मायं - उन्माद, पाउणिजा - प्राप्त होने की, दीहकालियं - दीर्घकालिक, रोगायंकं - रोग और आतंक, हवेजा - हो जाता है, केवलिपण्णत्ताओ - केवली प्ररूपित, धम्माओ - धर्म से, भंसिजा - भ्रष्ट हो जाता है, तम्हा - इसलिए, सेविजा - सेवन करे।
. भावार्थ - जैसे कि जो विविक्त अर्थात् स्त्री, पशु और नपुंसक रहित शय्या और आसनादि का सेवन करता है वह निर्ग्रन्थ होता है और जो स्त्री, पशु और नपुंसक से युक्त शय्या और
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