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________________ २७६ *** आसनादि का सेवन करता है वह निर्ग्रन्थ नहीं है। शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन्! निर्ग्रन्थ को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त शय्या आसनादि का सेवन क्यों नहीं करना चाहिए? आचार्य महाराज उत्तर देते हैं कि निश्चय से स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त शय्या और आसनादि का सेवन करने वाले निर्ग्रन्थ ब्रह्मचारी को, ब्रह्मचर्य में शंका अथवा कांक्षा - भोगभोगने की इच्छा अथवा विचिकित्सा - ब्रह्मचर्य के फल के प्रति संदेह उत्पन्न हो सकता है, अथवा विषयेच्छा जागृत होने से संयम का एवं ब्रह्मचर्य का विनाश होने की तथा उन्माद की प्राप्ति होने की संभावना रहती है और ऐसे कुविचारों के तथा दुष्कार्य के फल स्वरूप दीर्घकाल तक रहने वाला शारीरिक रोग, आतंक (शीघ्र मृत्यु करने वाले रोग हैं जो प्लेग आदि) उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार क्रमशः पतित होते हुए वह केवलज्ञानियों द्वारा प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इसलिए निश्चय से निर्ग्रन्थ मुनि को स्त्री, पशु और नपुंसक से युक्त शय्या और आसनादि का सेवन नहीं करना चाहिए। मुनि की स्त्री, पर विवेचन विविक्त शयनासन सेवन का स्वरूप और उसका पालन न करने से होने वाले अनर्थों का वर्णन किया गया है। में प्रथम ब्रह्मचर्य समाधि स्थान प्रस्तुत सूत्र स्त्री-पशु-नपुंसक युक्त शयनासन सेवन के सात दुष्परिणाम इस प्रकार हैं। १. शंका - स्त्री-पशु- नपुंसक युक्त शयनासन सेवन करने वाले साधक के ब्रह्मचर्य के विषय में लोगों को शंका हो सकती है कि यह साधु ब्रह्मचारी है या नहीं? अथवा स्त्री आदि से संसक्त स्थान में रहने से चित्त स्त्री आदि की ओर आकृष्ट हो जाता है। मानसिक ब्रह्मचर्य दूषित हो जाता है स्वयं के मन में भी ऐसी शंका हो जाती है कि मैथुन सेवन से नौ लाख जीवों की वध (हिंसा) होती है ऐसा जिनोक्त कथन सत्य मिथ्या है? कांक्षा होती है। - ऐसे व्यक्ति के भोगेच्छा मन - ४. चो Jain Education International २. हैय भी उत्पन्न हो सकती हैं। ३. विचिकित्सा - ब्रह्मचर्य के फल के विषय में भी संदेहावली उत्पन्न हो सकती है कि मैं ब्रह्मचर्य पालन में इतना भारी कष्ट उठाता हूँ इसका कुछ भी फल मिलेगा या नहीं? क्योंकि विषय भोग सेवन से तो तात्कालिक सुख मिलता है आदि। का विनाश होता है। ५. उन्माद काम परवशता वश उन्माद हो सकता है। ६. रोग एवं आतंक निःशंक हो कर स्त्री आदि से युक्त स्थानादि के सेवन से कामेच्छा के उद्रेक के कारण अनिद्रा, आहारादि में अरुचि, दाहज्वरादि रोग एवं आतंक - शीघ्र घात शूल आदि व्याधि हो जाती है। उत्तराध्ययन सूत्र :- सोलहवां अध्ययन **** - - - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004180
Book TitleUttaradhyayan Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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