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________________ प्रथम वक्षस्कार - सिद्धायतनकूट की अवस्थिति मिटाने वाला है और मूर्तियाँ भौतिक सुखों के लिए हैं। इस प्रकार दोनों का फल एक-दूसरे से विपरीत होते हुए भी दोनों संदर्भों को एक सरीखा समझ कर मूर्तिपूजा में धर्म बताना, शास्त्र ज्ञान के रहस्य की अनभिज्ञता सिद्ध करता है। अतः मूर्ति-पूजा लौकिक मंगल के लिए है और तीर्थंकरों के दर्शन आध्यात्मिक मंगल के लिए है। इस प्रकार यह सिद्ध हो गया कि देवलोक में वर्णित मूर्तियाँ तीर्थंकरों की न होकर, सरागी देवों की हैं और उनकी पूजा में धर्म बताना सत्य ज्ञान का अभाव सिद्ध करता है। सुज्ञ बंधु चिंतन करें । शंका- देवलोक में वर्णित मूर्तियों के जो चार नाम बताये हैं, यथा ऋषभ, वर्धमान, चंद्रानन और वारीसेन - ये ही नाम तीर्थंकरों के हैं तो फिर इन्हें तीर्थंकरों की मूर्तियाँ क्यों न मानी जायें? Jain Education International समाधान देवलोक की मूर्तियाँ अनादिकालीन और शाश्वत हैं तथा ये चार नाम के तीर्थंकर तो इस अवसर्पिणी में जंबूद्वीप के भरत और ऐरावत क्षेत्र के, प्रथम और अंतिम हुए हैं। केवल नाम की समानता से उन अनादिकालीन शाश्वत मूर्तियों को इन तीर्थंकरों की बतलाना अज्ञानता है, क्योंकि तीर्थंकर तो अनंत हुए हैं, फिर इन चार का ही नाम क्यों ? धातकी खंड एवं अर्द्धपुष्कर द्वीप में भी तीर्थंकर हुए हैं, वर्तमान में पांचों महाविदेह में बीस तीर्थंकर मौजूद हैं तथा इन सभी क्षेत्रों में भूत, भविष्य की चौबीसियाँ भी होती हैं। अन्य भी अजितनाथ जी, संभवनाथ जी आदि अनेक तीर्थंकरों के होने पर भी उनकी मूर्तियों से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए देवलोक में रही मूर्तियाँ तीर्थंकरों की नहीं हैं। एक सरीखे नाम के कारण गहरी खोज के बिना कुछ इतिहासकारों ने भी भूलें की हैं, जैसे- भगवान् महावीर के बाद ग्यारहवीं शताब्दी में होने वाले, उपसर्गहर स्तोत्र के रचयिता भद्रबाहु के साहित्य में रही हुई आगम विरुद्ध बातों को, तीसरी शताब्दी में होने वाले चौदह पूर्व भद्रबाहु के नाम पर लगाकर काफी भ्रम पैदा किया है। इसी प्रकार देवलोक की उन अनादिकालीन कामदेव आदि की सरागी मूर्तियों को एक जैसे नामों के कारण वर्तमान चौबीसी में होने वाले तीर्थंकर ऋषभदेव और वर्धमान की मूर्तियाँ बताकर भोले लोगों को गुमराह किया गया है । परन्तु जो गहरे खोजी होते हैं, वे क्षीर-नीर के न्याय से • सत्य को समझ जाते हैं। देवलोक में मूर्तियों की संख्या एक सौ आठ बतायी गयी है और नाम सिर्फ चार ही बताये हैं। जबकि तीर्थंकर तो अनंत हुए हैं। अतः सरागं भाव की सूचक मूर्तियाँ तीर्थंकरों की नहीं हो सकती । सुज्ञ बन्धु चिंतन करें। - - For Personal & Private Use Only २६ www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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