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________________ २८ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के वक्ष स्थल पर स्तन के चिह्न नहीं बताये, आँखों में विकृति सूचक लाल डोरे भी नहीं बताये और मूर्ति का वर्णन जीवाभिगम सूत्र में - ‘पाँव से मस्तक तक' किया है। मूर्ति में स्तन के चिह्न भी बताये और आँखों में विकृति सूचक लाल डोरे भी बताये हैं। इस प्रकार दोनों प्रत्यक्ष भेद होने से, ये विकारी और सरागी भाव की सूचक मूर्तियाँ तीर्थंकर की कैसे हो सकती है? समझदार व्यक्ति चिंतन करें। शंका - सूर्याभ आदि देवों द्वारा की गई मूर्ति-पूजा का फल बताते हुए शास्त्र में 'पेचा हियाए' और 'निस्सेयसाए' इन दो शब्दों का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ होता है पीछे . हितकारी और कल्याणकारी तो फिर इसे धर्म क्यों नहीं माना जाये? समाधान - शास्त्रों में जहाँ-जहाँ भी तीर्थंकर भगवान् एवं मुनियों के दर्शन का फल बताया वहाँ पर 'पेच्चा हियाए' शब्द कहा है। जिसका अर्थ है - परलोक में हितकारी तथा मूर्ति के दर्शन के फल में कहा है 'पुब्विं पच्छा हियाए' अर्थात् इस लोक में आगे-पीछे हितकारी। निष्कर्ष यह है कि देवों की पूजा से वे प्रसन्न होकर इस लोक में आगे-पीछे भौतिकसुखों के सहयोगी बन सकते हैं और तीर्थंकर भगवान् के दर्शन से परलोक सुधर जायेगा। धर्म का वास्तविक फल भी यही है। भौतिक सुखों की लालसा में धर्म होता ही नहीं है। अतः देवों की मूर्ति पूजा का फल, भौतिक सुखों की लालसा ही बताया होने से धर्म का उससे कोई संबंध नहीं है, इसलिए ये मूर्तियाँ तीर्थंकर की नहीं होकर कामदेव आदि की समझनी चाहिये। 'निस्सेयसाए' का अर्थ मुक्ति होता है, जो प्रसंगानुसार शास्त्र में अनेक स्थान पर आया है। जैसे भगवती सूत्र शतक दो उद्देशक एक में खंदक अधिकार में जलते हुए मकान में से धन आदि, सार-सार पदार्थ निकाल लेने के फल में भी 'निस्सेयसाए' शब्द कहा है। यहाँ पर इसका अर्थ यह है कि कीमती पदार्थ निकाल लेने से इस भव में दरिद्रता के दुःख से मुक्ति हो जायेगी अर्थात् संपन्नता से जीवन-यापन करेगा। इसी प्रकार देवों की मूर्ति-पूजा भी इस भव में शारीरिक-मानसिक दुःखों की मुक्ति के लिए होने से 'निस्सेयसाए' शब्द का प्रयोग है, परन्तु सर्वकर्म रहित होकर शाश्वत मुक्ति के लिए नहीं है। क्योंकि रायप्पसेणी सूत्र में ही दोनों (मूर्ति-पूजा और तीर्थकर दर्शन, सूर्याभ देव के द्वारा करना) पाठ है - सूर्याभ देव भगवान् के दर्शन करने गया तब उसके फल में 'पेच्चा हियाए और निस्सेयसाए' कहा है और जब सूर्याभ देव ने जिन प्रतिमा की पूजा की तब 'पुटिव पेच्चा हियाए' व 'निस्सेयसाए' कहा है, अर्थात् - तीर्थंकरों का दर्शन, जन्म-मरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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