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________________ प्रथम वक्षस्कार - सिद्धायतनकूट की अवस्थिति २७ अनेक वस्तुओं की पूजा करते हैं, अतः इसका धर्म के साथ कोई संबंध नहीं है तथा इन मूर्तियों को, तीर्थंकर की मूर्ति कहना भी हास्यास्पद है एवं शास्त्रज्ञान की अज्ञानता को सूचित करता है, क्योंकि इन मूर्तियों के पास नाग, भूत, यक्ष की प्रतिमाएं हैं, जबकि तीर्थंकरों के पास तो गणधर, साधु, साध्वी, श्रावक आदि होने चाहिए। तीर्थंकर तो सचित्त पदार्थ को छूते भी नहीं, इन मूर्तियों पर पानी, अग्नि, फूल आदि चढ़ाया जाता है और साक्षात् जीव हिंसा होती है जबकि दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन के दूसरे उद्देशक की चौदहवीं से अठारहवीं गाथा में बताया है कि यदि गृहस्थ, साधु को भिक्षा देते समय, किसी भी फूल को छू ले या कुचल दे तो साधु को वहाँ से भिक्षा लेने की आज्ञा नहीं है। ____ अब सोचिये कि साधु चाहे थका हुआ हो, भूख-प्यास से व्याकुल हो और वहाँ सभी वस्तु मिल रही हो, तो भी फूल छूने मात्र से वहाँ से भिक्षा लेने की भगवान् की आज्ञा नहीं है तो फिर भगवान् अपने ऊपर निरर्थक फूल चढ़ाने की आज्ञा कैसे दे सकते हैं ? सुज्ञ जन विचार करें। इसी सूत्र के पांचवें अध्ययन की गाथा इकत्तीस से तैंतीस तक में बताया है कि यदि साधु को भिक्षा देने के लिए कोई गृहस्थ पानी में चलकर, हाथ, बर्तन आदि धोकर अथवा पहले से गीले हों या हाथ की रेखा मात्र भी गीली हो, तो उससे भिक्षा लेने की भगवान् की आज्ञा नहीं है। तो क्या भगवान् ऐसी आज्ञा दे सकते हैं कि मेरे ऊपर पानी डालो, प्रक्षाल करो और मेरे पास आने के लिए स्नान करो, हाथ पाँव धोओ आदि निरर्थक हिंसा की आज्ञा नहीं हो सकती तथा जहाँ रात्रि में दीपक आदि जलता हो, वहाँ साधु को ठहरने की भी बृहत्कल्प सूत्र में भगवान् की मनाई है। श्रावक भी रात्रि में प्रतिक्रमण, सामायिक, पौषध आदि में लाइट नहीं जला सकता तो भगवान् अपने लिये अखंड ज्योत और धूप, दीपक आदि जलाने की कैसे आज्ञा दे सकते हैं? सुज्ञ जन विचार करें। जहाँ भगवान् की आज्ञा नहीं, वहाँ धर्म होता ही नहीं है। क्योंकि - आचारांग सूत्र अध्ययन छठा, उद्देशक दूसरे में बताया है कि 'आणाए मामगं धम्म' अर्थात् मेरी आज्ञा में ही धर्म है और सूयगडांग सूत्र के अध्ययन प्रथम, उद्देशक-चतुर्थ, गाथा दस में कहा है कि 'एयं खु णाणिणो सारं जं न हिंसई किचणं' अर्थात् ज्ञानी पुरुष होने का सार यही है कि किंचित् मात्र भी हिंसा न करे। - निष्कर्ष यह है कि देवों द्वारा पूजित मूर्तियों पर हिंसा होने से वे तीर्थंकरों की मूर्तियाँ नहीं हो सकती हैं, देवताओं के अव्रती होने से उनके द्वारा पूजित क्रिया, धर्म भी नहीं हो सकती तथा उववाई सूत्र में भगवान् के शरीर का वर्णन 'मस्तक से पाँव तक' किया है। इसमें भगवान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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