SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र काय जीवों की हिंसा होती है। तीर्थंकर भगवान् के दर्शन करते समय सचित्त का त्याग करना होता है। जहाँ सचित्त त्याग का विधान नहीं है वहाँ तीर्थंकर की आज्ञा नहीं होती। कहा भी है असली भगवान् के दीपक जलता नहीं, जहाँ दीपक जलता वो मूर्ति भगवान् नहीं। भगवान् का दर्शन करते समय सचित्त का त्याग होता है, जहाँ सचित्त वस्तु चढ़ाई जाती है, वहाँ निश्चित ही भगवान् नहीं॥ अतः शास्त्र में वर्णित जिन प्रतिमाएं सरागी देवों की हैं। तीर्थंकरों की नहीं। शंका - विजय देव, सूर्याभ देव आदि सम्यग् दृष्टि देवों ने भी देवलोक में जिन प्रतिमा की पूजा की है तो आप मूर्ति-पूजा क्यों नहीं मानते? समाधान - सूयगडांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के दूसरे क्रिया स्थान नामक अध्ययन में बताया है कि जो अव्रती है अर्थात् पहले से चौथे गुण-स्थान तक के जितने भी जीव हैं, वे सभी अधर्मी कहलाते हैं और श्रावक (पांचवें गुणस्थान वाले) धर्माधर्मी कहलाते हैं। साधु सभी (छठे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान वाले) धर्मी कहलाते हैं। अतः जितने भी देव हैं, वे सब अव्रती ही होते हैं और उन्हें धर्म होता ही नहीं है। इसलिए देवों की मूर्ति-पूजा से धर्म की सिद्धि नहीं हो सकती। देवलोक में बारहवें देवलोक तक भवी, अभवी, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, किल्विषि आदि से लेकर एक भवावतारी इन्द्र आदि जितने भी देव हैं, वे सभी अनंत भवों में जब-जब भी देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तब-तब वहाँ रही हुई उन सरागी देवों की शाश्वत प्रतिमाओं की पूजा करते ही हैं, यह उनका जीताचार (लोक व्यवहार) है। इसमें भौतिक सुख-समृद्धि की लालसा होती है, धर्म-भावना नहीं। अगर, धर्म होता तो सभी जीवों ने अनंत बार देवलोक में मूर्ति-पूजा की है, फिर भी हमारा मोक्ष, कल्याण नहीं हुआ, बल्कि असंख्य देव वहाँ से काल करके पृथ्वी, पानी, वनस्पति और तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न होते हैं। अगर मूर्ति-पूजा में धर्म होता तो आपके मत में सभी देव धर्म करने वाले ही हैं फिर ऐसी दुर्गति क्यों होती है? ___ अतः जिस प्रकार मनुष्य लोक में अनेक प्रसंगों पर लोगों द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि के लिए, लक्ष्मी आदि के साथ दवात, कलम, सिक्के, बहीखाता आदि अनेक पदार्थों की पूजा की जाती है, वैसे ही देव भी अपनी दैनिक जीवन की सुख-समृद्धि में विघ्न न हो, इसके लिए मूर्ति के साथ दरवाजा, द्वारशाखा, तोरण, दाढ़ा, नागबिंब, दवात, कलम, पुतली, पुस्तक आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy