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________________ पंचम वक्षस्कार अभिषेक समारोह - कतिपय देव उत्क्षिप्त - प्रारंभिक प्रयोगमय, पादात्र, पादबद्ध, मंदायतिक - बीच-बीच में मूर्च्छना आदि के प्रयोग के कारण मंदता युक्त तथा रोचितावसान - यथोचित लक्षण युक्त, आदि - अंत संगत गीत प्रस्तुत करते हैं । - कतिपय अञ्चित, द्रुत, आरभट एवं भसोल संज्ञक नृत्य विद्याओं में नाचते हैं। कई चार प्रकार की दान्तिक प्रातिश्रुतिक, सामन्यतोविनिपातिक एवं लोक मध्यावसानिक - ये चार प्रकार की अभिनय विद्याएं प्रस्तुत करते हैं। कई बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्य विधि का प्रदर्शन करते हैं। कई उत्पात - निपात, निपात-उत्पात, संकुचित-प्रसारित यावत् भ्रांत-सभ्रांत नामक दिव्य नाट्यविधि को उपदर्शित करते हैं। कुछेक तांडव - प्रोद्धत कई लास्य- सुकोमल नृत्य करते हैं। कुछ अपने को स्थूल बनाते हैं, कुछेक उच्च स्वर से तेज आवाज करते हैं आस्फालन - बैठते हुए भूमि का स्पर्श करते हैं, वल्गन-मल्लों की तरह परस्पर भीड़ जाते हैं, सिंहनाद करते हैं। कुछ इन तीनों को एक साथ करते हैं। कई घोड़ों की तरह हिनहिनाते हैं, गजों की तरह मंद-मंद स्वर से चिंघाड़ते हैं, रथों की तरह गड़गड़ाहट करते हैं, कुछ क्रमशः तीनों करते हैं । Jain Education International कई आगे की ओर तथा कई पीछे की ओर उछलते हैं । कुछेक पैंतरे बदलते हैं, कई पैर भूमि पर पटकते हैं, भूमि को रौंदते हैं, जोर-जोर से आवाजे करते हैं, इस प्रकार इन सभी क्रियाओं के समवेत रूप भी यहाँ कहे गए हैं। कतिपय हुंकार करते हैं, पुकारते हैं, मुंह से थक् - थक् की आवाजे करते हैं, अवपतित होते हैं, ऊपर उछलते हैं, तिरछे गिरते हैं, स्वयं को ज्वालामय रूप में दिखलाते हैं, गर्जन करते हैं, तीव्र अंगारों से तप्त दिखलाते हैं, विद्युत की तरह द्युतिमय होते हैं, वर्षा के रूप में परिणत होते हैं... I ३६७ कुछेक उत्कलित - वातूल की तरह चक्कर लगाते हैं। कई अत्यन्त आनंद पूर्ण स्वर में कहकहाहट करते हैं। कई उल्लासवश दुहु-दुहु की ध्वनि करते हैं, कुछ लटकते होंठ, मुंह खोले, आंखें फाड़ें भूत-प्रेत आदि जैसे रूप की विकुर्वणा करते हैं, तेजी से नाचते हैं। इस प्रकार के विविध प्रकार से नाट्यादि विधि का प्रदर्शन करते हैं। शेष वर्णन विजय देव के वर्णन के अनुरूप यहाँ ज्ञातव्य है यावत् सब चारों और आधावण प्रधावन करते हैं इधर-उधर विभिन्न रूप में दौड़ लगाते हैं। For Personal & Private Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.004179
Book TitleJambudwip Pragnapti Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jambudwipapragnapti
File Size9 MB
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