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जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र
प्रत्येक दिशाकुमारी अपने-अपने आभियोगिक देवों को आहूत करती हैं उनसे कहती हैं - हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही सैकड़ों स्तंभों पर समवस्थित क्रीड़ारत शालभंजिकाओं आदि से समवेत यान-विमानों की रचना करो। यान-विमानों का वर्णन पूर्ववत् कथनीय है यावत् वे आभियोगिक देवों को पूर्व वर्णित योजन विस्तार युक्त सुंदर यान विमान की विकुर्वणा कर जानकारी देने का आदेश देती हैं। ___तब आभियोगिक देवों ने अनेक स्तंभ समाश्रित यावत् यान विमान की रचना कर देवियों को अवगत कराया, तब वे अधोलोकवासिनी आठ गरिमाशालिनी दिशाकुमारियाँ बड़ी ही हर्षित, परितुष्ट और प्रसन्न हुईं। उनमें से प्रत्येक अपने-अपने चार-चार सहस्त्र सामानिक देवों चार चार महत्तरिकाओं यावत् अन्यान्य देवों तथा देवियों से संपरिवृत अपने दिव्य यान विमानों पर सवार होती है। सर्वविध समृद्धि एवं वैभव युक्त वे देवियाँ बादलों की तरह बजते मृदंग आदि वाद्यों की ध्वनि के साथ उत्तम, दिव्यगति द्वारा तीर्थंकर के जन्म स्थान पर आती हैं। फिर जन्म भवन के निकट आती हैं। दिव्य यान विमानों में अवस्थित यावत् वे तीन आदक्षिण-प्रदक्षिणा करती हैं, वैसा कर उत्तर पूर्व दिशा में अपने विमानों को जमीन से चार अंगुल से कुछ कम ऊँचाई पर ठहरा देती है। अपने अपने चार-चार सहस्र सामानिक देवों यावत् अन्य बहुत से देवों और देवियों से घिरी हुई अपने विमानों से नीचे उतरती हैं। वे समस्त ऋद्धियुक्त यावत् गाजोंबाजों के साथ तीर्थंकर एवं उनकी माता के समीप आती हैं। तीन बार उन दोनों की आदक्षिणा-प्रदक्षिणा करती हैं. प्रत्येक अपने अंजलिबद्ध हाथों को मस्तक पर घुमाकर यों कहती हैं - रत्नकुक्षि धारिके! जगत् प्रदीप प्रदायिके! हम आपको नमन करती हैं। समस्त जगत् के लिए मंगलमय, देवस्वरूप, प्रत्यक्ष जगत् के प्राणियों के लिए वात्सल्यमय, हितप्रद धर्ममार्ग के उपदेष्टा, व्यापक वाग्वैभव युक्त रागद्वेष विजेता, अतिशय ज्ञानी, धर्म साम्राज्य के अधिनायक, स्वयं बुद्ध, ओरों के लिए बोधप्रदायक, समग्र धार्मिक जगत् के स्वामी ममत्व शून्य, उत्तम कुल एवं क्षत्रिय जाति में उत्पन्न जगत् में सर्वोत्तम तीर्थंकर भगवान् की आप माता हैं, धन्य हैं, पवित्र हैं, कृतकृत्य हैं। देवानुप्रिये! हम अधोलोक में निवास करने वाली प्रमुख आठ दिशाकुमारियाँ भगवान् तीर्थंकर का जन्मोत्सव मनाएंगीं। अतः आप भयभीत न हों, इस प्रकार कह कर वे उत्तर-पूर्व दिग्भाग में जाती हैं, वैक्रिय समुद्घात द्वारा आत्म-प्रदेशों को निष्क्रांत करती हैं एवं संख्यात योजन परिमित दंड के रूप में परिणत करती है। रत्नमय बादर पुद्गलों को छोड़ती है सूक्ष्म पुद्गल गृहीत करती है यावत् पुनः वैक्रिय समुद्घात द्वारा संवर्तक वायु की विकुर्वणा करती हैं। वैसा कर उस
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